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________________ * नीतिवाक्यामृत * १३१ पररणादि दुःखोंसे, ज्ञानापरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातिया माम उदयसे होने वाले राग, द्वष और मोह-आदि भाव कर्मोंसे एवं पापकर्मोकी काबार सर्षक तथा संसारको दुःख समुद्रसे उद्धार करने वाला हो। लिखक सम्पू'में भी श्राचार्यश्रीने लिखा है कि प्राप्त ईश्वर के स्वरूपको जाननेमें प्रवीण .. कि को सर्वश, सर्व लोकका ईश्वर-संसारका दुःख समुद्रसे उद्धार करनेवाला-जुधा .. दोषोंसे रहित (वीतराग ) एवं समस्त प्राणियोंको मोक्षमार्गका प्रत्यक्ष उपदेश ने सीकर प्रभुको सत्यार्थ 'ईश्वर' कहते है ॥१॥ -- मोरका सर्वह होना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि यदि अश-मूर्ख-मोक्षमार्गका पचनोंमें अनेक प्रकारके विरोध आदि दोष होंगे । इसलिये इससे भयभीत सज्जन सवालको खोज करते हैं एवं उसके द्वारा कहे हुए वचनोंको प्रमाण मानते हैं ॥२०॥ र प्रभु मोक्षोपयोगी तत्वदेशनासे संसारके प्राणियोंका दुःख-समुद्रसे उद्धार करता है; परकमलों में तीनों लोकोंके प्राणी नम्र होगा ३ वह सर्जन का ई बन्दी नहा। पिपासा, भय, प, चिन्ता, अज्ञान, राग, जरा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, भी विषाद ये १८ दोष संसारके समस्त प्राणियोंमें समान निसे पाये जाते हैं, अतः इन १८ मिरचन-पापकर्मोकी कालिमासे रहित (विशुद्ध) और केवलज्ञानरूप नेत्रसे चुक्त ( सर्वज्ञ) काम होसकता है एवं वही द्वादशाङ्ग शास्त्रोंका वक्ता होसकता है ॥४-५-६।। उक्त असाधारण मादि-महाबीरपर्यन्त तीर्थकरोंमें वर्तमान हैं; अतएव आचार्यश्रीके उक्त प्रमाणोंसे हम इस लोकेश सर्वदोषयिवर्जितम् । सहित प्राहुराप्तमाप्तमतोचिना; ॥१॥ मम्पग्पते कैश्चित्तदुक्त प्रतिपद्यते । महोपदेशकरणे विप्रलम्भनशक्तिभिः ॥२॥ मापदेशनादुःखबारुबरते जगत् । न सर्वतोकेयः प्राहीभूतजगत्त्रयः ।।३।। पामा मयं दोपश्चिन्तन मूदतागमः । महोबा वा मृत्युः क्रोधः वेदो मदो रतिः ॥ स्सियो जनन निद्रा विषादोऽष्टादश भुवाः । विगतमूताना दोषाः साधारणा हम II मिदोविनिमः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । स हेतुः पतीना केवलशानलोचनः ।।५।। पशास्तिक के सोमदेवरि-श्रा०६ is
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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