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________________ 4 नोतिषामान्य tranakaas.u.. .. भावार्थ:-विवेकी मनुष्यको दिनके १२ घंटों में से एकत्रिभाग-४ घंटे धर्ममेवनमें, एकत्रिभाग अर्थपुरुषार्थ न्यायसे धनसंचय करनेमें और एकत्रिमाग कामपुरुषार्थ-(न्यायप्राप्त भोगोंको उदासीनता से मोगना) के अनुधानमें व्यतीत करना चाहिये । इसके विपरीत जो व्यक्ति काम सेवनमें ही अपने ममयके बहुभागको व्यतीत कर देता है, वह अपने धर्म और अर्थपुरुषार्थको नष्ट करता है। जो केवल सहा धर्म पुरुषार्थका ही सेवन करता है, वह काम और अर्थकी सावि करता है और जो दिनरात सम्पत्तिके मंचन करनेमें व्यग्र रहता है, वह धर्म और कामसे विमुख होजाता है। इस प्रकार के व्यक्ति अपने जीवनको सुखी बनानेमें समर्थ नहीं होसकते । अतएव सुखाभिलापी विवेकी पुरुष तीनों पुरुषायोको परस्परकी बाश रहित समयका समान विभाग करके सेवन करे। विद्वान् नारद' मी आचार्यश्री की उक्त मान्यताका समर्थन करता है कि 'मनुष्यको दिनके तीन विभाग करके पहले विभागको धमांनुवानमें और दूसरेको धन कमानेमें एवं तीसरेको कामसेवन में उपयोग करना चाहिये ॥१॥ .. बादीमसिंहमूरिने कहा है कि यदि मनुष्यों के द्वारा धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्य परस्परकी बाधारहित सेवन किये जाँय तो इससे उन्हें बिना रुकावटके स्वर्गलक्ष्मी प्राप्त होती है और कमसे मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।शा' निष्कर्षः-नैतिक व्यक्तिको धर्म, अर्थ, और काम पुरयार्थीको परस्परकी बाधारहित समयमा । समान विभाग करते हुए सेवन करना चाहिये ।।३।। अब तीनों पुरुषायोंमें से केवल एकके सेवनसे होनेवाली हानि बताते हैं: एकोम'त्यासेवितो धर्मार्थकामानामारमानमिवरौ च पीरपति । ४॥ अर्थः-ओ मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषायों में से केवल एकको ही निरन्तर सेवन करता है और दूसरेको छोड़ देता है यह केवल उसी पुरुषार्थको वृद्धि करता है और दूसरे पुरुपयोंको ना कर गलता है। भावार्थ:-जो व्यक्ति निरन्तर धर्म पुरुषार्थका ही सेवन करता है वह दूसरे पर्व और कामपुरुषायो । को नरदेवा है, क्योंकि उसका समस्त समय धर्मके पालनमें ही लग जाता है। इसी प्रकार देवास तथापनारब:पार सषिमा प्रयम धर्ममाचरेत् । द्वितीय सतो पित्त' नृती कामसेवने ॥ २ परस्परविरोधेन विवों परि म्यते। मागतः गौम्पमरणयोंभवतुकयात् बापूधामको साक्षी मसिहसटि मलम। ३ 'भस्यारक्याम प्रकार म. म. पाक में पाटो अर्थ प्रयन्त प्रासबिन में ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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