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* नीतिवाक्यामृत *.
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि उस समय भगवान ऋषभदेव ने प्रजाकी जीवनरक्षा के लिये उसे असि-शस्त्रधारण, मषि-लेखनकला, कषि-खेती, विद्या, वाणिज्य-व्यापार और शिल्पकला इन जीविफोपयोगी ६ साधनों का उपदेश दिया था।
नीतिकार काम का है कि "कोम-जन्म जाने मालाको धर्म और धनके लिये एवं भृत्यों के भरणपोपणार्थ और संकटोंसे बचनेके लिये अपने कोषकी रक्षा करनी चाहिये ॥१॥
उसे प्रमाणिक अर्थशास्त्री कुशलपुरुषोंके द्वारा अपने खजानेकी वृद्धि करनी चाहिये तथा धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थोकी वृद्धि के लिये समय २ पर कोष में से सम्पत्ति स्वच करनी चाहिये ॥२॥
जिस प्रकार देवताओंके द्वारा जिसका अमृत पी लिया गया है ऐसा शरद ऋतुका चन्द्रमा शोभायमान होना है उसी प्रकार यह राजा भी जिसने अपना खजाना धर्मकी रक्षाके लिये खाली कर दिया है, शोभायमान होता ॥३॥
निष्कर्षे:-उक्त न्यायोचितसाधनों द्वारा संचित किये हुए उदार--स्वार्थत्यागी ब्यक्तिके धनको वास्तविक धन कहा गया है। क्योंकि उसमे उसके सभी प्रयोजन सिद्ध होते हैं ।। १॥ अब धनाड्य होनेका उपाय बताते है:
सोऽथंस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति ॥ २॥ अर्थ:-जो मनुष्य सदा सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार अर्थानुबन्ध-(ब्यापारादि साधनों से अविधमान धनका संचय, संचितकी रक्षा और रक्षितकी वृद्धि करना ) से धनका अनुभव करता हैउसके संचय आदि में प्रवृति करता है वह उसका पात्र-स्थान होता है-धनान्य होजाता है।
. धर्ग' विद्वान ने भी आचार्यश्रीके अभिप्रायको व्यक्त किया है कि 'निश्चयसे वह व्यक्ति कभी भी निर्धन-दरिद्ध नहीं होता जो सदा विद्यमान धनकी प्राप्ति, प्राप्त किये हुए धनकी रक्षा और रक्षा किये गये की वृद्धि में प्रयत्नशील रहता है ।।१।। अब अर्थानुबन्धका लक्षण करते हैं
अलम्धलाभो लब्धपरिरक्षणं रक्षितपरिवर्द्धनं चानुबन्धः ॥ ३ ॥ अर्थः-व्यापार और राम्यशासन आदिमें किये जानेवाले साम, दान, दंड और भेद आदि उपयों से अविद्यमान धनका कमाना और प्राप्त किये हुए धनकी रक्षा करना- पात्रदानपूर्वक कौटुम्धिक निर्वाह फरना, परोपकार करते हुए निरर्थक धन को वर्वाद न करना, आमदनीके अनुकूल खर्च करना और चोरोंसे बचाना आदि ) और रक्षा किये हुए धनकी व्याज आदिसे वृद्धि करना यह अर्थानुबन्ध है।
। असिमषिःकर्षािविद्या वाणिज्यं शिपमेय षा। कर्मातीमानि बोदा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥
प्रादिपुराणे भगवज्जिनसेनाचार्थः। २ देखो नीतिमार सर्ग ४ श्लोक ६४। २५, देखो नीतिसार पू. १३ श्वोर८६-८७ । ५ तथा च चर्ग:अर्थानुसन्धमार्गेश मोर्थ संसेवते सदा । सन मुश्यने ने कदाचिदिति निश्चयः ॥1॥
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