SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमात्य समुद्देश mmar ...... .. ........... PH.. पर (पाद श्रादि सीख लेने पर) दमन करनेसे उन्मत्त होकर सवारको जमीन पर पटकना आदि विकार-युक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार अधिकारी गणभी तुद्रप्रकृति-यश गर्च युक्त होकर राज्य क्षति करने तत्पर रहते हैं, मसः राजाको सदा उनकी परीक्षा-जांच करने रहना चाहिये ।।४३|| बादरायण' और भृगु विद्वानोंने भी क्षुद्र पति-युक्त अधिकारियों के विषयमें यही कहा है ।।१२।। उक्त बातका दृष्टान्त द्वारा समर्थन, अधिकारियों को लक्ष्मो, समृद्ध अधिकारी व अमात्य दोष-- मारिषु दुग्धरक्षणमिव नियोगिषु विश्वास-करणम् ॥४४॥ ऋद्धिश्चित्तविकारिखी नियोगिनामिति सिद्धानामादेशः ॥४५॥ सर्वोऽप्यति समृद्धोऽधिकारी भवस्यायत्यामसाभ्यः कच्छताभ्यः स्वामिपदाभिलाषी वा ॥४६॥ भक्षणमुपेचणं प्रज्ञाहोनत्वमुपरोधः प्राप्तार्थाप्रवेशा ध्यावनिमयश्चेत्यभात्यदोषाः ॥१७॥ अर्थ-वामीका मन्त्री आदि अधिकारियों पर विश्वास करना दूधकी रक्षार्थ रक्खे हुए विजावोंक समान है । अर्थात् जिस प्रकार विलावोंसे दूधको रक्षा नहीं हो सकती, उसी प्रकार मन्त्र आदि अधिकारियोंसे भी राजकोषकी रक्षा नहीं हो सकती, अतः राजाको उनकी परीक्षा करते रहना चाहिये ॥४॥ भारद्वाज विद्वानने भी अधिकारियोंके विषयमें इसी प्रकार कहा है ॥शा 'सम्पत्ति अधिकारियोंका चित्त विकार-युक्त (गर्व युक्त) करती है। यह प्रामाणिक नीतिज्ञ पुरुओंका वचन है ॥४५॥ नारद' विद्वान्ने भी कहा है कि 'पृथ्योपर कुलीन पुरुषभी धनाढ्य होनेपर गर्ष करने लगता है ॥१॥ सभी अधिकारी अत्यन्त धनाड्य होनेपर भविष्य में स्वामीके वशवती नहीं होते अथवा कठिनाईसे वशमें होते हैं अथवा उसको पद प्राप्तिके इच्छुक होते हैं ।।४।। नारद विद्वामने भी कहा है कि अत्यन्त धनाड्य अधिकारीका राजाके वशमें रहना असम्भव है, क्योंकि वह इससे विपरीत राज-पदका इच्छुक हो जाता है ।।शा गुरु' विद्वान्ने भो कहा है कि 'जो राज-सेवक कत्तप्र-पटु, धनाढ्य व आलसी होते हैं उनका जोंकोंके समान पूर्ण सम्पत्तिशाली होना न्याय-युक नहीं । अर्थात् उनका दरिद्र रहना ही उत्सम है। . , सपा व भादरामयः--परवा पमा विन्ति दान्ता अपि च सैन्धवाः । आमाप्यपुरुषा ह या पंधिकार नियोजिताः ॥ सपा भूगुः-परीक्षा भूभुजा कार्या नित्यमेवाधिकारिगाम् । यस्मा विकृति मास्ति प्राच्य सम्पदमुचमार ॥७॥ तमा च भारद्वाजः-माजोरेखिन विरपासो यमा नो दुग्धरक्षणे । नियोगिमा नियोगेड तवा बायों न भूभुजा • या च मारदः-सायन विकृति याति पुरुषोऽपि असोजणः । यावत्सरिसंयुक्तो न भवेवत्र भूतको in ५ मा चना:-अविसमृद्धिसंयुक्तो नियोगी यस्य जायते । पसायो भूपते: स स्पातस्यापि पवाम्बकः ॥ ६ तथा प गुरु:- मेवाः कर्मसुपटवः पूर्ण प्रवासा मवन्ति ये भृत्याः । सेपो जलोकसामिष पूणों वाव पदना न्याया।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy