SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ hine 4758nturHAAD . . . १७ स्वामि-समुद्देश २४१-२६५ राजाका लक्षण, अमात्य-प्रादि प्रकृतिका स्वरूप, असत्य व धोखा देनेसे हानि, लोकप्रिय पुडप, स्कृष्ट दाता, प्रत्युपकारसे काम व समचा परोपकार, प्रत्युपकार शून्यकी कुटु मालोचना, स्वामीी निरर्थक प्रसन्नता, जुद्र अधिकारियों वाले राजाको हानि, कृतघ्नता, मूर्खता, लोभ और बामपसे हानि, उत्साहीके गुण, भन्याय तर वाचारका भरणाम, वेश्यसका फल पत्रीय भाडाका सल्जवन न करना राज-कर्तव्य (भपराधानुरूप दर विधान), घामान्य गजाकी बटुभालोचना और मनुष्यकर्वन्य (सजा पाये हुए व्यक्तिका पक्ष न लेना) एवं पररहस्य २४-२५५ अपरीक्षित वेप व बर्ताव, राजकीय कोप व पापका दुष्प्रभाव, राजाद्वारा किंधे हुए तिरस्कार बसम्मानका असर, राजकर्तव्य (प्रजा कार्य की देखरेख-आदि ) व अधिकारियोंकी अनुमितजीविका, राजकतन्य (रिश्वत स्वोरोंसे प्रजाकी रक्षा), रिश्वतसे क्षति, वनास्कारपूर्वक प्रजासे धन महल करने वाले राजा व प्रजाको हानि, राजकीय, अन्यायकी सदृष्टान्त कड़ी पालोचना, मनुष्य जिसका सेवक है, बस्द्रिकी लघुता, विद्याका माहात्म्य, लोकव्यवहार-पटुता, बुद्धिके पार दशौ एवं कन्यका बोध न कराने वालों की आलोचना। २५६-२६४ १८ अमात्य समद्देश--- २६५-२८१ सकि.माहात्म्य, उसके विना कार्यकी असिद्धि, लक्षण, सचिव-कर्तव्य, माय-व्यय, स्वामी, दन्त्र-मजण, मन्त्री-दोष, योग्य अयोग्य अधिकारी, अयोग्योंसे हानि, बन्धु सम्बन्धके भेद, बक्षण, मधिकारी, अर्धसचिव आदि होनेके अयोग्य व्यक्ति एवं चति २६५-२७३ अधिकारियोंकी उन्नति, अयोग्योंसे कष्ट, उन पर विश्वास करनेसे हानि, सम्पत्ति-शासी अधिकारियोका असर, अमात्य-दोप, राजतंत्र (मंत्री भादि) की नियुक्ति, सनको स्वयं देख रेख, अधिकार, राजसंत्र, मीवी-बचणा, आय व्ययको शुद्धि एवं उसके विवादमें राज-कर्तव्य २७४-९७७ रिश्वत-सम्बन्धी संचित धन के ग्रहण करनेका उपाय, अधिकारियोंको पन व प्रतिष्ठा-प्राप्ति, नियुक्ति, कार्य सिद्धि में उपयोगी गुण म उसका समर्थन, भधिकारीका कर्तव्य, राज-कर्तव्य (अचानक मिने र धनमें और अधिक मुनाफाखोर व्यापारियोंके प्रति), मधिकारियोंकी फूटसे और धनाध्य अधिकारियोंसे राजकीय लाभ, संग्रहके योग्य मुख्य वस्तु व धान्यसंपका माहात्म्य मादि२९ जनपद-समद्देश-- २८२-२८८ देरॉली नाममाला, व्याख्या व गुण दोष, बहुत्रिय और ब्राह्मणवाले प्रामोसे हानि, परामें प्राप्त हुए स्वदेश वासीके प्रति राजकर्तव्य, शुल्क स्थानों के अन्यायसे इति, काची धान्य. फसल कटाने और पकी हुई में से सेना निकालनेका दुष्परिणाम, प्रजा पीरित करनेसे हानि, एवं पहिसे देख मुक प्रजाके प्रति राजकर्तब्य, मर्यादा मनसे हानि, प्रजाकी रचा, न्याय-युक्त शुकधामोरो लाभ, सेना व राजकोषकी वृद्धिके कारण, विद्वानों व प्रामणोंके देने योग्य भूमि, भूमि दान और तालाब-दान आदिमें विशेषता अथवा वाद-विवाद के उपरान्त न्यायोचित निर्णय २. दुर्ग-ममुद्देश . २८४-२६२ दुर्ग शब्दार्थ, भेद, दुर्ग-विभूति (गुण ), दुर्ग शून्य देशसे हानि, शत्र के दुर्गको नष्ट करनेका पाय पराजकतव्य ( दुर्गके बारेमें)
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy