SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युद्ध समुद्देश ३६५ 4... + "... की रक्षार्थ सैनिक संगठन की योजना) व अचाप (दूसरे देश की प्राप्ति के लिये की जाने वाली सन्धि विमहादि की योजना ) को प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को 'नीतिशास्त्र' कहते है। अपने देश की रक्षा के लिये सैन्य-संगठन आदि उपायों की योजना तंत्र' है और दूसरे देश की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले (सन्धि-विमहादि ) की योजना को 'बाप' कहते है ॥ ४५-४७॥ शुक' ने भी स्वदेश की रक्षा का उपाय 'तंत्र' और दूसरे देश की प्राप्ति के उपाय को 'अवाप' कहा है ॥ १ ॥ भकेचा व्यक्ति कभी भी बहुसंख्यक के साथ युद्ध न करे, क्योंकि मदोन्मत्त जहरोमा सांप बहुत सी चीटियोंद्वारा भक्षण कर लिया जाता है॥४॥ नारद ने भी उक्त रष्टान्त द्धारा सकेले व्यक्ति को युद्ध करने का निषेध किया है॥१॥ विजिगीषु बिना परीक्षा की हुई शत्र की भूमि में न तो प्रविष्ट हो और न वहाँ से वापिस श्रावे ।। ४६॥ युद्ध व उसके पूर्व कालीन गज-कर्त्तव्य, विजय प्राप्त कराने वाला मंत्र, शत्र के कुटुम्बियों को अपने पक्ष में मिलाना, शत्रु द्वारा शत्र नाश का परिणाम व रष्टान्त, अपराधी शत्र के प्रति राजनीति व दृष्टान्त विग्रहकाले परस्मादागतं कमपि न संगृहीयात् गृहीत्वा न संवासयेदन्यत्र तद्दायादेभ्यः, श्रयते हि निजस्वामिना कूटकलह विधायावासविश्वासः कुकलासो नामानीकपतिरात्मविपक्ष विरूपाचं जघानेनि ।। ५० ॥ बलमपीड़यन् परानभिपेणयेत् ।। ५१॥ दीर्घप्रयाणोपहतं बलं न कर्यात् स तथाविधमनायासेन भवति परेप साध्यं ॥ ५२ ॥ न दायादादपरः परवलस्याकर्षणमंत्रोऽस्ति ॥५३॥ यस्याभिमुख गच्छेत्तस्याश्य दायादानुत्थापयेत् ॥ ५४ ।। कण्टकेन कण्टकमिय परेण परमुद्धरेत् ॥५५॥ विन्येन हि विल्यं हन्यमानमुभयथाप्यात्मनो लाभाय ॥५६॥ यावत्परेणापकृतं तावताऽधिकमपकृत्य सन्धिं कुर्यात् ॥५७|| नातप्तं लोई लोहेन सन्धत्त ॥५८॥ अर्थ-भदाई के समय परचक्रसे पाये हुए किसी भी अपरीक्षित व्यक्ति को अपने पक्ष में न मिजावे, यदि मिलाना हो दो अच्छी तरह जांच-पड़ताल करके मिजावे, परन्तु उसे यहां ठहरने न देखे चौर शत्र के कुटुम्बी, जो कि उससे नाराज होकर वहां से चले आये हैं बन्हें परोक्षा-पूर्वक अपने पक्ष में मिलाकर ठहरा लेवे, अन्य किसी को नहीं। इतिहास बताता है कि कमलाम नाम के सेनापति ने अपने मालिक से झूठ मूठ कलह करके शत्र के हदय में अपना विश्वास उत्पन्न कराकर अपने स्वामी के प्रति पक्षी (शत्र) विरुपाक्ष नाम के राजा को मार डाला ॥ ५० ॥ - - - -- तथा च शुक्रः- स्वमगासस्य राय यतंत्रं परिकीर्तितं | परदेशस्य संप्रापया प्रवापो नयनस्याम् ॥ २ तथा मार:-एकाकिना न योग्यं बहुभिः सह दुर्यस्तैः । दोर्याच यापि इन्मेत यथा सर्पः पिपीक्षिः ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy