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________________ ૪ नीतिवाक्यामृत ********** प्रतिहतप्रापोऽङ्गारः संपतितोऽपि किं कुर्यात् ||४२|| विद्विषां चाटुकारं न हुमन्येत | ४३ | जिह्वया लिहन् खड्गो मारस्येव ॥ ४४ ॥ तन्त्रावापो नीतिशास्त्रम् ॥ ४५ ॥ स्वमण्डलपालनाभियोगस्तंत्रम् || ४६ || परमण्डलावाप्यभियोगोऽत्रापः ॥ ४७|| बहुनेको न गृह्णीयात् सोपिस या निपीलिकाभिः || ४ || अशोधितायां परभूमो न प्रविशन्निर्गच्छेद्वा || ४६ ॥ अर्थ-जो शत्रु दण्ड द्वारा वश करने योग्य है, उसके प्रति अन्य सामदान भावि उपायों का प्रयोग, प्रज्वलित अग्नि में घृत की आहुति देने के समान उसकी कोध-वृद्धि का कारण होता है । अर्थात् जिस प्रकार प्रज्वलित व्यक्ति घृत की आहुति द्वारा अत्यधिक बढ़ती है, उसी प्रकार दंड द्वारा काय में किया जाने वाला शत्रु भी अन्य सामादि उपायों द्वारा अत्यधिक कुपित हो जाता है ॥ ३६ ॥ माघकवि' ने भी अग्निसे वपे हुए घृत में क्षेपण किये हुए जन बिन्दुओंके दृष्टान्त द्वारा उक्त बात का समर्थन किया है | १ ॥ जिस प्रकार यन्त्र, शस्त्र, अग्नि व क्षारचिकित्सा द्वारा नष्ट होने योग्य व्याधि अन्य औषधि द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती, उसी प्रकार दगड द्वारा वश में किया जाने वाला शत्रु भी अन्य सामादि उपाय द्वारा काबू में नहीं किया जा सकता जिस प्रकार सर्प की दांदें निकाल देने पर वह रम्सां के समान शक्तिद्दीन (निर्विष) हो जाता है, उसीप्रकार जिसका धन व सैन्य नष्ट कर दिया गया है, ऐसा शत्रु भी शक्ति हीन हो जाता है ॥ ४१ ॥ नारद ने भी उक्त व उखाड़े हुए सोंगवाले बैल का दृष्टान्य देकर उक्त बादका समर्थन किया है |१| जिस प्रकार नष्ट हो गया है प्रताप जिसका ऐसा अङ्गार नहीं कर सकता, उसी प्रकार जिसका धन व सैम्य रूप प्रताप नष्ट किया गया है, वह शत्रु भी कुछ नहीं अश्म ) शरीर पर पड़ा हुआ कुछ कर सकता || ४२ ॥ नैतिक पुरुष शत्रु के कपट-1 - पूर्ण व्यवहार (विरुनी चुपड़ी बातें - मादि) पर अधिक ध्यान न देवे उसके अधीन न होवे, क्योंकि जिसप्रकार तलवार जो द्वारा चाटी जाने पर भी इसे काट डालती है, उसी प्रकार शत्रु भी मधुर वचन बोलता हुआ मार किया है ।। ४३-४ ॥ तंत्र ( अपने देश सवर्ष ? || २ || अतिप्रवृद्धा ओ के नाम न दर्पयति ॥ ३ ॥ कृतार्था विवटितन्त्रस्थ पो रुपम्मदिक कुद ? ॥ ४ । इतना विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि जब तक बुद्ध संबंधी वृत्तान्त को नहीं जानते, तब तक सभी लोग शूरवीर होते हैं। दूसरेकी शक्तिको न जानकर कौन पुरुष अहंकार नहीं करता ? प्रायः सभी अहंकार करने लगते हैं। अत्यन्त बढी हुई लक्ष्मी किसे गर्म-युक्त नहीं बनाती ? सभरेको बनाती है जिसका धन अपहरका कर लिया गया है एवं जिसका सैम्प भी नष्ट कर दिया गया है, ऐसा शत्रु क्रुद्ध होकर मी स्पा कर सकत है ? कुछ नहीं कर सकता ॥ १-४ ॥ ( पूर्व पृष्ठ का शेषांश) १ तथा च माधकविः -- सामवादाः सकोपस्य तस्य प्रत्युसद्दीपकाः । प्रतप्तस्येव सहसा सविस्तोयविन्दवः ॥ १ २ तथा च नारदः -- दंष्ट्राविरहितः सर्पो भग्न गोऽयवा वृषः । तथा वैरी परिज्ञेयो यस्य नार्थो न सेवकाः ॥ १ ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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