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________________ १०४ * नीतिवाम्यामृत के ..... ... अब युक्तिपूर्वक आत्मद्रव्यकी शरीरादिकसे पृथक सिद्धि करते हैं: असत्यात्मनः प्रेत्यभावे विदुषां विफलं खलु सर्वमनुठानम् ॥ ५ ॥ अर्थः-यदि पात्मन्यका पुनर्जन्म-परलोक (स्वर्गादि) में गमन न माना जावे तो मंसारमें विद्वानोंकी जो पारलौकिक धार्मिक कर्तव्यों (प्राणि रता, दान, तप और अपादि) में प्रवृत्ति होती है वह व्यर्थ-निष्फल-होगी। क्योंकि आत्माका परलोक-गमन न माननेसे उन्हें बागे जन्म में उक्त पारलौकित अनुष्ठानोंका स्वर्ग आदि सुखरूप फल प्राप्त न होगा । अतएव विद्वानोंकी पारलौकिक-दान-पुरुष प्रादि धार्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्ति प्रात्मद्रव्यके परलोक-गमनको सिद्ध करती है ॥५॥ 'प्रेक्षापूर्वकारिणां प्रवृत्तेः प्रयोजनेन व्याप्तत्वात्' अर्थात् प्रेक्षापूर्वकारी-विद्वान मनुष्योंसकार्य-पारलौकिक दान-पुण्यादि-में प्रवृति निष्फल नहीं हो सकती-किन्तु सफा ही होती है, इस नियमित सिद्धान्तके अनुसार उनकी दीक्षा और प्रतादिमें देखी जानेवाली सत्प्रवृत्ति भात्मष्यका पुनर्जन्म परलोक गमन-सिद्ध करती है। ___ याज्ञवल्क्य' विद्वान्ने लिखा है कि सबकी भात्मा मरने के बाद अपने कर्मो के अनुसार नवीन शरीर को धारण कर पूर्व में किये हुए शुम और प्रशुभ कोंके अच्छे और बुरे फलोंको भोगवा है ।।१।। भब मनका स्वरूप बसाते हैं: यतः स्मृतिः प्रत्यवमर्षणमूहापोहन शिक्षालापक्रियाग्रहणं च भवति तन्मनः ॥ ६ ॥ अर्थ:-जिससे प्राणीको स्मरण (मैने अमुक कार्य किया था और अमुक कार्य कहँगा इस्वादि पतिझान) व्याप्ति-भान (उदाहरणार्थ:-जैसे जिस २ मनुष्यमें व्यवहार कुशलता होती है उस २ में भवरण बुद्धिमत्ता होती है जैसे अमुक व्यक्ति । एवं जिस में बुद्धिमत्ता नही होती उसमें व्यवहार राक्षा भी नहीं होती जैसे अमुक मूर्ख व्यक्ति । इसप्रकार साधनके होनेपर साभ्यका होना और सायकी गैरमौजमगीम साधनका न होना इसे व्याप्ति शान कहते हैं), अह-(संदेह युक्त पदार्थका विचार), चपोह (संदिग्ध पदाच निश्चय), किसीके द्वारा दीजाने वाली शिक्षाका ग्रहण और किसीसे की हुई बातचीतका पानसे गुमनाये समशान होते हों उसे 'मन' कहते हैं ।।६।।। ... गुरु' विद्वानने भी कहा है कि जिससे मनुष्योंको अह-संदिग्ध पदार्यका विचार, अपोह-उसम निश्चय, चिन्ता-व्याटिमान और दूसरेके वचनोंको धारण करना ये शान उत्पन्न हों उसे मन भवे १ सया च याज्ञवल्क्यामात्मा सर्वस्य लोकस्य सर्व भुसे शुभाशुभ। मृतस्यान्यत्समासाद्य स्वकर्माई करलेषरम् ॥ २ तश च गुरु: जहागौ तथा चिन्ता परामरावधारमा । यत: संजायते स तन्मनः परिकीर्तितम् ।।।।।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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