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प्रकोणक समुदंश
४२३ गुरु' व भारद्वाज ने भी सुमरको महत्ता व महापुरुषों के विषय में उक्त बात की पुष्टि की है । १०२
जिस प्रकार स्वभाव से शीतल जल के उष्ण होने में अग्नि का असर कारण है, इसीप्रकार स्वाभाविक शान्त पुरुष के कपित होने में दुष्टों की संगति हो कारण समझना चाहिये ।।४।
बल्लभदेव ने भी कहा है कि 'घोड़ा, शस्त्र, शास्त्र, बीणा; बाणो, मनुष्य व स्त्रो ये पहषविशेष ( उत्तम व प्रधम ) को प्राप्त कर योग्य-अयोग्य हो जाते हैं ॥१॥
प्रयो उमिद्धि चाहन वाहे मनुष्य को इस प्रकार के मनुष्य को अच्छी तरह सेवा करनी चाहिये, जो कि चिरकाल तक स्थिरशील होकर उसी प्रयोजन-सिद्धि में सहायक हो ।। ६० ॥ दुर्वख-निधन पुरुष को स्थिरशोल ( धनाढ्य ) पुरुषों के साथ धन देने का षर्माण नहीं करना चाहिये, इससे उसकी अत्यधिक माथिक-क्षति-धन व्यय- नहीं होने पाता ।। ६१॥
शुक्र व गुरु ने भी प्रयोजनार्थी एवं निधन पुरुषके विषयमै उक्त बातका समर्थन किया है ।।१-२॥
महापुरुषों का ऐसा भपूर्व माहात्म्य है कि उनकी सेवा करने से मनुष्य में ऐसा व्यक्त्वि श्रा जाता है कि यदि वह मसावधानी-वश कोई अच्छा बुरा काय कर बैठता है--कोई अपराध कर लेता हैतो लोक में उसको निन्दा नहीं हो पाती और न उसे अपने प्राणों के नष्ट होने का खतरा रहता है। इसी प्रकार सत्पुरुषों की सेवा तत्काल सम्पत्ति उत्पन्न करता है एवं विपत्ति का नाश करती है । ६२-६३ ॥
हारीत' ने भी महापुरुषों की सेवा का इसो प्रकार माहात्म्य निर्देश किया है ।। १.२ ॥
कौनसा प्रयोजनार्थी मनुष्य स्वार्थ सिद्धि के निमित्त गाय से दूध चाहने वाले मनुष्य के समान उसकी प्रयोजन सिद्धि करने वाले दुसरे मनुष्य के प्राचार का विचार करता है। गेई नहीं करता। अथो -जिस प्रकार गाय के दूध चाहने वाला उसके मापार (अपवित्र वस्तु का भक्षण करना) पर दृष्टि पान नहीं करता, उसी प्रकार प्रयोजनार्थी भी 'अर्थी दोषं न पश्यति'-स्वार्थासद्धिका इकछुक दूसरेके दोष नहीं देखता' इस नीति के अनुसार अपनी प्रयोजनासद्धि के लिये दूसरे के दोषों पर दृष्टिपात न करे ४६४।।
शुक' ने भी प्रयोजन सिद्धि के इच्छुक पुरुष का यहो कर्तव्य बताया है ।।१॥
१ तथा गुरु:-नोचन कर्महा मेहन महत्वमुपगतः । स्वभावनियतिस्तस्य यथा वाति महत्वा ॥ ॥ २ सया र भारतान- भवन्ति महात्मानो निनिमितं धान्विताः । निमित्तेऽपि संजाते यथाम्मे दुर्जनाः जनाः ॥" ३ तथा सबल्समदेवः-प्रमः शस्त्र शास्त्रं बोया वाचो मरश्च नारी च।
पुरुषविशेष अग्धवा भवन्ति योग्या अयोग्णाश्व ॥१॥ ४ तथा एक:-कार्यार्थी म मशोषों या साधु संमेपरिस्थर । सर्वारमना सत: सिदिः सर्वदा र प्रजायते ॥ . ५ तथा च गुरुः-महद्भिः सह नो कुर्यादप्यमहारं सर्वदः । गतस्य गोचर तस्य न स्पात पाप्या महान गायः ॥111 ६ तथा व हारीस:-महापुरुषसेवायामपनराधेऽपि संस्थित : मापवादो भवेत् पुसा न च प्राणवस्तथा ॥ ॥
शीघ्र समान!माथी बमोशियेण्यसनं महत् । सत्पुमरे कृता सेवा काखेनापि नाम्पमा २५ तथा च शुक्र:- कार्याधी न विचार' च कुरुतं च प्रियान्वितः 1 दुग्धार्थी च यशी धेनोरमध्यास्य प्रभावान् ॥1॥