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नीतिवाक्यामृत
जिनके पुष्कल ज्ञान व सदाचार प्रभृति सद्गुणो परिचय हो चुका है, ऐसे विद्वान और कमनी कावा' (स्त्रियां) मनुष्यको आत्माको अध्यन रायमान (सुख) करती हैं ||६५ | चित्र (फोटो) वर्तमान राजाका भी निरस्कार नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसमें ऐसा अर्व क्षात्र-तंत्र (क्षत्रियसंबंधी तेज विद्यमान रहता हैं, जो कि राज-पुरुषके शरीर में महान देवता रूप से निवास करता है ॥ ६६ ॥ शुक्र' व गर्ग ने भी विद्वानों और कमनीय फार्मिनियों तथा राजा के विषय में इसी प्रकार का उल्लेख किया है ॥ १-२ ॥
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विचारपूर्वक कार्य न करने व ऋण वाकी रखने से हानि, नया सेवक, प्रतिज्ञा, निर्धन अवस्था में उदारता, प्रयोजनार्थी व प्रथक किये हुये सेवक का कर्तव्य
कार्यमारभ्य पर्यालोचः शिरो मुण्डयित्वा नक्षत्रप्रश्न इव ।। ६७ ।। ऋणशेषाद्रिपुशेषादिवा
यं भवत्वात्यां भयं ॥ ६८ ॥ नवसेवकः को नाम न भवति विनीतः ॥ ६६ ॥ यथाप्रतिश की नामात्र निर्वाहः ॥ ७० ॥ अप्राप्तेऽर्थे भवति सर्वोऽपि त्यागी ॥ ७१ ॥ अर्थार्थी नीचैराचराणान्नाद्विजेत्, किन्नाथो व्रजति कूप जलार्थी || ७२ ।। स्वामिनोपहतस्य तदाराधनमेव निवृतिहेतु जनन्या कृतविप्रियस्य हि बालस्य जनन्येव भवति जीवितव्याकरणं ॥ ७३॥
अर्थ- जो मनुष्य कार्य-भारम्भ करने के पश्चात् उसके होने वाले लाभ का विचार करते हैं, वे शिर मुड़कर नक्षत्र प्रश्न ( शुभ-अशुभ मुहूर्त का पूछना ) करने वाले के समान मूर्ख है। अर्थात जिस प्रकार शिर मुड़ाकर शुभ-प्रशुभ मुहूर्त पूछना निरर्थक है, उसी प्रकार कार्यारम्भ करके पश्चात् समे होने वाले हानि-लाभ का विचार करना भी निरर्थक है, अतः कार्य बारम्भके पहिले उस पर विचार कर लेना उचित है, क्योंकि उतावली से किये हुये कार्य हृदय में काँटे चुभने के समान अत्यधिक पर पहुँचाते हैं ॥ ६७ ॥ जो मनुष्य शत्रु को याकी रखने की तरह ऋण ( कर्जा ) बाकी रखता है, उसे भविष्य में भय रहता है, अतः सुखाभिलाषी पुरुष अग्नि, रोग, शत्रु और ऋण इन बार कष्टदायक चोओं को बाकी न छोड़े, अन्यथा ये बढ़कर अत्यन्त पीड़ा पहुँचाती है ।। ६८ ।।
नारद ने भी विचारपूर्वक कार्य करने का एवं शुक्र ने भी अति व रोगादि उक्त चारों चीजों के उन्मूलन करने का उल्लेख किया है ।। १-२ ॥
कौनसा नया सेवक शुरू में नम्र प्रदर्शन नहीं करता ? प्रायः सभी करते हैं। अभिप्राय यह है कि नया नौकर शुरू में विश्वसनीय कार्यों द्वारा स्वामी को प्रसन्न करने में प्रयत्नशील रहता है, पश्चान
२ तथा च गग:३ तथाच नारदः
5 तथाच शुक्रः स्त्रियं वा यदि वा किञ्चिनुभूय विषयाः। श्रारमानं वापर वापि रज्जयन्ति न चान्यथा ॥ १ ॥ नावमन्येत भूपाल होनको सुदुर्दक्षं । पात्रं तेजो यतस्तस्य देवरूपं तनां वसेत् ॥ १ ॥ प्रारम्भेण कृस्पानामा कोचः क्रियते पुरा । श्रारम्भे तु कृते पश्चात् पर्याक्षोधी वृथा हि सः ||६|| शिरसो मुण्डने यद्वन् कृते मूर्खतमैर्नरैः । नचत्र एव प्रश्नान ? पयसाचस्तमः ॥ २ ॥
४ तथा च शुद्र अग्निशेषं रिपोः शेषं नृणाणांभ्यां च शेषकं । पुनः पुनः पततस्मान्निःशेषयेत् ||१||