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________________ ११४ * नीतिवाक्यामृत .amsutraa m raaanwr.sakoreaneaara-Pasexmadtruar------- - शुक्र' विद्वान्ने भो कहा है कि जो सजा देशको पीड़ित करनेवाले दुलोंपर दयाका वर्ताव करता है उसका देश निस्सन्देह नष्ट हो जाता है इससे वह अपने राज्यको भी खो बैठता है ॥१॥ मनुष्यों के कर्तव्य सर्वथा निर्दोष नहीं होते इसका निरूपणः न खल्वेकान्ततो यतीनामप्यनवद्यास्ति क्रिया ॥३६॥ अर्थ:-जितेन्द्रिय साधु महापुरुषों के भी कर्तव्य-अहिंसा और सत्य आदि-सर्वथा निर्दोष नहीं होते-उनके कत्तेश्योंमें भी कुछ न कुछ दोष पाया जाता है, पुनः साधारण पुरुषोंके कत्तेच्योंका तो कहना ही क्या है ? अर्थात् उनके कतव्योंमें दोष-टि-होना साधारण बात है ॥३६।।। वर्ग विद्वान्ने भी कहा है कि 'साधुओंकी क्रिया-अनुष्ठान-भी सर्वथा निर्दोष नहीं होती; क्योंकि वे भी अपने कत्तव्यसे विचलित होजाते हैं ॥१॥ सर्वथा दयाका वतोव करनेवाले की हानिका निर्देश: एकान्तेन कारुण्यपरः करतलगतमप्यर्थ रचितुन क्षमः ॥३७॥ अर्थ:-जो मनुष्य सदा केवल दयाका बर्ताव करता है वह अपने हाथ में रखे हुए धनको भी बचानेमें समर्थ नहीं होसकता ।।३७॥ शुक विद्वान्ने भी कहा है कि 'राजाको साधुपुरुषों और दुःस्वी प्राणियोंपर दशंका वाद करना चाहिये, परन्तु जो दुष्टोंपर दया करता है वह अपने पासके धनको भी खो बैठता है।॥१॥' सदा शान्त रहनेवालेकी हानि: प्रशमैकचित्र को नाम न परिभवति १ ॥३॥ १ तथा च शुक्र: दयां करोति यो राजा राष्टसम्तारकारिणां । स रायन शमाप्नोति गिष्ट्रोच्छेदाद्यसंशयं ] Mm नोट:- श्लोकका चतुर्थ-चरम सं. टी. पुस्तकमें 'राष्ट्रोच्छेदादिसंशयं ऐसा अशुद्ध था जिससे अर्थसमन्वय ठीक नहीं होता था अतः हमने उसे संशोषित एवं परिवर्तित करके अर्धसमन्यय किया है । सम्पादक:-- २ तया च वर्ग: अनवद्या सदा तावन्न खल्वेकान्ततः किया । यतीनामपि विवेत नेषामपि यतश्च्युतिः ।।१।। ३ तथा च शुक्र:--- दया साधुष कर्तग्यां सीदमानेषु जन्तुषु । असाधुषु दया शुक्रः [स्ववित्सादपि अश्यति | नोट:--उऊ श्लोवले चतुर्थ-चरण में स्वचित्तादपि भ्रश्यति। ऐसा अशुद्ध पाठ या जिससे अर्थ-समम्वर और नहीं होता था, अतणब हमने उक्त संशोधन और परिवर्तन करके भर्य-समम्चय किया है। सम्पावक--
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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