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________________ अब प्रधान्त द्वारा उक्त बातका समर्थन करते हैं ___ अल तेनामृतेन यत्रास्ति विषसंसर्गः ।। ७२ ॥ अर्थः-जिसमें जहर मिला हुआ हो उस अमृनसे क्या लाभ है ? कोई लाभ नहीं। भावार्थ:-जिसप्रकार विष-मिश्रित अमृतके पीनेसे मृत्यु होती है उसीप्रकार अमृतके समान विद्या भी दुष्ट पुरुषसे प्राप्त की आनेपर हानिकारक होती है उससे शिष्यको पारलौकिक कष्ट भोगने पड़ते हैं। नारद विद्वानने कहा है कि 'शिष्य नास्तिकोंके सिद्धान्तको अमृतके समान मानता है परन्तु यदि वह उसे परलोकमें विषकी तरह घासक और दुःखदायक न होता तब उसका उसे अमृतके सुल्य प्रिय-- लामदायक-मानना उचित था ॥१॥ निष्कर्षः-नैतिक मनुष्यको विष-मिश्रित अमृतके समान दुष्ट पुरुषसे विद्या प्राप्त नहीं करना चाहिये अथवा नास्तिकों-चार्वाक मावि-के हानिकारक मतको स्वीकार नहीं करना चाहिये ।। ७२ ।। अब शिष्य गुरुजनोंके अनुकूल होते हैं इसका विवेचन करते हैं गुरुजनशीलमनुसरन्ति प्रायेण शिष्याः ।। ७३ ॥ अर्थ:-शिष्यलोग बहुधा अपने गुरुजनोंके शील-प्राचार-विचार-का अनुसरण करते हैंअर्थात यदि शिक्षक नैतिक, सदाचारी और विचारवान होता है तो उसका शिष्य भी उसके अनुकूल प्रवृत्ति करनेवाला नैतिक सदाचारी और विचारवान् होजाता है। परन्तु यदि वह नीसिविरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाला, दुराचारी और मूर्ख होगा तो उसका शिष्य भी वैसा-दुराचारी आदि-होगा। वर्ग:विद्वान्ने भी कहा है कि जिस प्रकार वायु जैसे-सुगन्धि या दुर्गन्धि देशको स्पर्श करती है उसीके अनुकूल सुगन्धि या दुर्गन्धिको प्राप्त कर लेती है उसीप्रकार मनुष्य भी जैसे शिष्ट या दुष्ट पुरुषकी सेवा करता है उसकी वैसी ही–सस् या असत्-अच्छी या बुरी--प्रवृत्ति होजाती है ।। १।।' निष्कर्ष:-प्रतएव शिक्षक-रुजनविद्वान् , नीतिज्ञ, सदाचारी और भद्रप्रकृति-युक्त होने चाहिये जिससे उनके शिष्य भी तदनुकूल-उनके समान होकर संसारकी सर्वोत्तम सेवा करते हुए ऐहिक एवं पारत्रिक सुख प्राप्त कर सकें ।। ७३ ॥ अब कुलीन और सदाचारो शिक्षकोंसे होनेवाला लाभ यताते हैं: नवेषु मृवाजनेषु लग्नः संस्कारो अक्षणाप्यन्यथा कतुं न शक्यते ॥ ७४ ।। अर्थ:-जिसप्रकार नवीन मिट्टीके वर्तनों में किया हुआ संस्कार-रचना-झाके द्वारा भी बदला नहीं जासकता उसीप्रकार पोंके कोमल हृदयोंमें किया गया संस्कार भी बदला नहीं जासकता। । तथा च नारद:नास्तिकानां मतं शिष्यः पीयूषमिव मन्यते । दुःखाई परे कोके नोचेद्विषमिव स्मृतम् ।।।।। २ तथा घ वर्ग:यारवान् सेवते मपस्तारक चेष्ठा प्रजायते । पारशं स्वशते देश वायुस्तद्गन्धमावहेत् ॥ १॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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