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________________ १६० 'मन्त्रि-समुद्देश o i le r k -. . aai . .. .. . ... . .... .. .. ........ .. भावार्थ:-जिमप्रकार पागल कुत्ते के दाँतका विष काटे हुये मनुष्यको उसी समय विकार पैदा नहीं करता; किन्तु वर्षाकाल आनेपर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसी प्रकार कुलहीनमंत्री भी राजाके ऊपर आपत्ति पड़नेपर उसके पर्वकृत दोषको स्मरण करके उससे विरुद्ध होजाते हैं; अतएव नोचकल पाने मंत्रियोंका रखना राजाको अनुचित है ।। १६ ।। यादरायण' विद्वानने भी उक्त सिद्धान्तका समर्थन किया है कि 'जिस राजाके मंत्री नीचकुलके होते हैं, वे गजाके ऊपर विपत्ति आनेपर उसके द्वारा किये हुए पहले दोपको स्मरण करके उससे विरुद्ध होजाते हैं ॥१॥ कुलीनमंत्रीका स्वरूप: तदमृतस्य विषत्वं यः कुलीनेषु दोषसम्भवः ।। १७ ॥ अर्थः-कुलीन पुरुषों में विश्वासघात-भादि दोषोंका होना अमृतका विष होनेके समान है। अर्थात् जिस प्रकार अमृत विष नहीं हो सकता, उसी प्रकार उच्च कुलवालोंमें भी विश्वामघात आदि दोष। नहीं हो सकते ॥ १७ ॥ भ्य विद्वान्ने कहा है कि 'अदि अग्नि शीतल-ठंडी, चन्द्रमा उष्ण और अमृत विष होसके तब कहीं उच्च-फुलबाला में भी विश्वासघात--आदि दोष होसकते हैं। अर्थात् जिस प्रकार अग्नि ठंडी नहीं हो सकती, चन्द्रमा गरम नहीं होसकता और अमृत विष नहीं होसकता, उसीप्रकार कुलीन पुरुष भी आपत्तिके समय अपने स्वामी-श्रादि से विरुद्ध होकर विश्वासघात-आदि दोष नहीं कर सकते ॥क्षा' ज्ञानी मंत्रीका झान जिसप्रकार व्यर्थ होता है: घटप्रदीपबत्तज्ज्ञाने मंत्रियों यत्र न परप्रतियोधः ॥१८॥ अर्थ:-जिस ज्ञानके द्वारा दूसरोंको समझा कर सन्मार्ग पर न लगाया जाये, वह मंत्री या विद्वान् का ज्ञान पदमें रक्खे हुये दीपकके समान व्यर्थ है। अर्थात् जिसप्रकार उजालकर घड़े में स्थापित किया हुचा दीपक केवल घड़े को ही प्रकाशित करता है, परन्तु बाह्य वेशमें रहनेवाले पदार्थीको प्रकाशित नहीं सलिये वह व्यर्थ समझा जाता है, उसीप्रकार मंत्री अपने राजाको और विद्वान् पुरुष दुमरों को समझाने की कलामें यदि प्रवीण नहीं है, तो उसका ज्ञान निरर्थक है।।१॥ वर्गविद्वान्ने कहा है कि जो मंत्रो अनेक सद्गुणों से विभूषित होने पर भी यदि राजा को समझाने की कलामें प्रवीण-चतुर नहीं है, तो उसके समस्त गुण घटमें रक्खेहुए दीपकके समान व्यर्थ है ।।१६' शास्त्र ज्ञान की निष्फलता:तेष शस्त्रमिव शास्त्रभषि निष्फलं येषां प्रतिपक्षदर्शनाद्भयमन्वयन्ति चेतांसि ॥१६॥ .-..---- ..---- -- १ तथा च कादरायण:-अमात्या कुलहीना ये पाश्रिवस्य भवन्ति ते । आपतकाले विरुध्यन्ते स्मरन्तः पूर्व दुष्कृतम् ॥ २ तथा परंम्यः--धाद स्यारशीतलो बन्दि: सोणास्तु रजनोपतिः। प्रमृतं च बर्ष मावि तत्कुलीनेषु बिक्रिया या ३ तथा च वर्ग:-सुगरणादयोऽपि यो मत्री नृपं शक्ता न बोधिनम् [निरर्थका भवात्यन्त गणा घटप्रदीपसन ||१|| नोट:-उक्त श्लोकक तीसरे चराका पद्य-रचना हमने स्वयं की है क्योंकि सं.टी पलक में ना था। सम्पादक करता, इस
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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