SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * नीतिवाक्याभूत * के अनुवादकका मङ्गलाचरण * को है माघमार्गका नेता, अरु रागादिक जंता है। जिसके पूर्णज्ञान-दर्पण में, जग प्रतिभासित होता है ॥१॥ जिसने कर्मशत्रुविध्वंसक, नीतिमार्ग दर्शाया है। उस श्रीपादिदेवको मन, शत शत शीश मुकाया है॥२॥ अब राज्यका महत्व बताते हैं : धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः। अर्थ:-मैं उस राज्यको श्रादरकी राष्ट्रसे देखता हूँ जो प्रजाको धर्म, अर्थ, भौर काम इन तीन पुरु पायोंको उत्पन्न करने में समर्थ है। अव धर्मका लाइण बताते हैं: यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः॥१॥ अर्थ:-जिन सत्कर्तव्योंके अनुष्ठानसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि जो प्राणियोंको सांसारिक दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख (मोक्ष) में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। भाचार्य श्रीसोमदेवसूरिने यशस्सिलकचम्पूमै षष्ठ प्राधाससे लेकर अाम भारवासपयन्न इम विषम की विराव व्याख्या की है । उपयुक्त होनेके कारण उमे यहाँ सक्षेपसे लिखते हैं :-- जिससे मनुष्यों को भौतिक-सांसारिक एवं पारमार्थिक (मोक्ष) सुख की प्राप्ति होती है उसे प्रागम के विज्ञान धर्माचार्यों ने धर्म कहा है- ॥१॥ उसका स्वरूप प्रवृत्ति और निवृत्तिाप है -अर्थात् मोक्षके साधन सम्पदर्शन आदि में प्रवृति करना और संसारके कारण मिच्यादर्शन आदिमे निवृत्त होना-नका स्याग करना यही धर्मका स्वरूप है। यह गृहस्थधर्म और मुनिधर्मके भेवसे दो प्रकारका है ।। - सम्यग्दर्शन, सम्यगान और सम्यकचारित्र इन तीनोंकी प्राप्ति मोक्षका मार्ग है और मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और मिथ्यातप ये संसारके कारण है ।शा - युक्तिसे सिजू पदार्थों ( जीवादि मात सत्वों ) का यथार्थ श्रद्धान करना सभ्यगदर्शन है एवं उक तत्वों कामदेह भ्रान्ति और अनभ्यवसायरहित यथार्थ ज्ञान होना सभ्यरसान है और कर्मबंधके कारण हिमा, मैंठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पापक्रियामोंका त्याग करना सम्पाचारित्र है। अब उक्त तीनों में से केवल सम्यग्दर्शन आदि मोक्षप्राप्तिका उपाय नहीं है इसे बसाते हैं। १ देम्बो स्लपर लोड ।। वो यशस्निलक पृथ्म २६८-२६६ ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy