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________________ पुरोहितसमुकेश २१५ युक्तमयुक्त वा गुस्लेव जानाति यदि न शिष्यः प्रत्यर्थवादीA॥१०॥ गुरुजनरोषेऽनुत्तरदानमभ्युपपत्तिश्चापधम् ॥१९॥ शत्रूणामभिमुखः पुरुषाश्लाघ्यो न पुनगुरूणाम् ॥१२॥ भाराध्य न प्रकोपयेद्यद्यसावाश्रितेषु कल्याणशंसी ॥१३॥ गुरुभिरुक्त नातिक्रमितन्य, यदि नैहिकामुत्रिकफलविलोपः ॥१४॥ सन्दिहानो गुरुमकोपयमापृच्छेत् ॥१५॥ गुरूणां पुरतो न यथेष्टमासितव्यम् ॥१६॥ नानभिवाद्योपाध्यायाविधामाददीस ॥१७|| अध्ययनकाले व्यासङ्ग पारिप्लवमन्यमनस्कतां च न भजेत् ॥१॥ सहाध्यायिषु वुद्ध्यतिशपेन नामिभूयेत ॥१६॥ प्रत्रयातिशयानो न गुरुमवज्ञायेत ॥२०॥ अर्थ-अधर्म, अनुचित-श्राचार-नीति-विरुद्ध प्रवृत्ति और अपने सत्कर्तव्यों में विघ्नकी बाहोंको छोड़कर बाकी सभी स्थानों में शिष्यको गुरुके वचन उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।।६॥ परि शिव गुडसे . 'प्रत्त्वपापेभ्यो पुक्रमयुक्तं वा गुरुरेष जानाति पदि न शिघ्यः प्रत्वों पादी पा स्याव- इसमकार का पारावर मु. प . मु. प्रतियों में वर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि जब आज्ञाकारी शिव गुरु से साताबाद. विचार नहीं करता, पापि गुरुजन भयोग्यता प्राविफे कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा आदि में विण-बाधाएं उपस्थित करते हैं, ऐसे अवसर र शिष्यको उनपर श्रद्धा रखनी चाहिये, न्योंकि गुरुजन ही उस विषयमें योग्य-अयोग्यका . मिरर सकते हैं। . B'मस्याघमारांसतिर इलमकारका पाट सक्त . प्रतिमोंमें है, परन्तु अर्धमेद अन नहीं। Cr पार उक्त मू० प्रतियोंसे संकलन किया गया है। Eमुशि मू० प्रतियोंमें उक्त सूत्रके परमात 'मधुस्ति-जाति-श्रुताभ्यामाधिय समारवं पा सपकारका अधिक पाठ वर्तमान है, जिसका अर्थ यह है कि यदि शिष्य अपने गुरुको अपेक्षा रक्तस्वकमा, जाति और विद्वत्ता 1. से अधिक मा समान है, तथापि उसे गुरुको नमस्कार किये विना विद्या प्राय नहीं करना चाहिये। F नाभ्यसूचे' ऐसा पाठ सक्स मा प्रतियों में है, जिसका अर्थ-ईर्ष्या नहीं करनी चाहिने रोष पूर्ववत् । 1Gावयेत्। पेसा पाठ उक्त मू० प्रतियों में है जिसका अर्थ बजिस करना है, शेष पूर्ववत् ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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