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मंत्रि-समुदेश
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मण या कर्तव्य:नाममारब्धस्यापम दुष्टि विशेष विनियोगसम्पदं च ये कुयुस्ते मंत्रिणः ॥२४||
यो बिना प्रारम्भ किये हुए कार्यों का प्रारम्भ करें, प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूरी करें और होचुके हों उनमें कुछ विशेषता लावें तथा अपने अधिकार का उचित स्थान में प्रभाव दिखावें नाहते हैं ॥ ४॥
सिवान ने कहा है कि जो कुशल पुरुष राजाके समस्त कार्यों में विशेषता तथा अपने अधिकारका सरवानिमें प्रवीण हो, वे राजमंत्री होने के योग्य हैं, और जिनमें उक्त कार्य करनेकी योग्यता नहीं है, असा योय नहीं हैं ॥१॥ सों के साथ किये हुए विचार--के अङ्गःर कर्मणामारम्भोपायः पुरुपद्रव्यसंपदेशकालविभागो विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धि.. श्चेति पंचांऽगो मंत्रः ॥२॥
-त्रके पांच अङ्ग होते हैं। १ कार्य के प्रारम्भ करने का उपाय, २ पुरुष और द्रव्यसम्पत्ति, और काल का विभाग, ५ विनिपात प्रतीकार और ५ कार्यसिद्धि । धा। कार्य प्रारम्भ करनेका उपाय -जैसे अपने राष्ट्रको शत्रओंले सुरक्षित रखने के लिये उसमें खाई हा और दुर्ग-प्रावि निर्माण करनेके माधनौका विचार करना और दूसरे देशमें शत्रुभूत राजाके यहां
निमह-श्रादिके उद्देश्यसे गुपचर व दूत भेजना-आदि कार्योंके साधनोंपर विचार करना यह मरहमा का है।
मी मीतिकारने कहा है कि जो पुरुष कार्य-प्रारम्भ करनेके पूर्व ही उसको पूर्णताका उपाय-साम माहि-नहीं सोचता, उसका यह कार्य कभी भी पूर्ण नहीं होता ॥१॥
इष षषसम्पत्ति अर्धाम्-यह पुरुष अमुक कार्य करने में निपुण है, यह जानकर उसे उससनिक करना तथा द्रव्य सम्पत्ति कि इतने धनसे अमुक कार्य सिद्ध होगा,यह क्रमशः 'पुरुष सम्पन्'
मा सम्पत्' नामका दूसरा मंत्राङ्ग है। अथवा स्वदेश-परदेश की अपेक्षासे प्रत्येकके दो भेद हो जाते हैं। बहरणार्थ:-पुरुष-अपने देशमें दुर्ग आदि बनाने में अत्यंत चतुर बदई और लुहार-आदि और बी, पत्थर आदि | दूसरे देश में पुरुष, संधि आदि करनेमें अशल दत्त नथा सेनापति और द्रव्य
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किसी नीतिकार ने कहा है कि जो मनुष्य अपने कार्य-कुशल पुरुषको उसके करनेमें नियुक्त नहीं
उस कार्य के योग्य धन नहीं लगाता, उसमे कार्य-सिद्धि नहीं होपाती ।।'
प्रचार शुभ-नां यन्ति विशेष ये सर्व कर्मसु भूरतः । स्वाधिकारप्रभाय च मंत्रिणस्नेऽन्यथा परे ॥१॥ या कश्चिन्नोतिविन्:--- कायारम्भ नोगायं सतिद्धयर्थ' च चिन्तयेत् । यः पूर्व नस्य नो मिद्धि तत्कार्य
वर योन समर्थ म कस्य पदई' च नया धनन् । यो ज येत्-यो न कृत्ये तत्मिदि तम्य नो ब्रजेत् ।।१।।