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________________ १२८ * नीतिवाक्यामृत भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णोंकी सेवा-शुभवा करना और शिल्पकला - चित्रकला - श्रादिसे जीविका करना इत्यादि शूद्रोंकी जीविका अनेक प्रकार की निर्दिष्ट की गई है | प्रशस्त - - उत्तम-शूका निरूपण:-- सकृद परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः || ११|| अर्थ:- जिनके यहाँ कन्याओं का एकबार ही विवाह होता है--पुनर्विवाह नहीं होता से सम्-प्रशस्त (उत्तम) शुद्र कहे गये हैं। विमर्शः -- भगवजिनसेनाचार्य ने शूद्रोंके दो भेद किये हैं १ कारु २ अकारु । धोबी, नाई और चमार श्रदि कारू और उनसे भिन्न अकारु । कारु भो दोप्रकार के हैं १ दृश्य - स्पर्श करनेयोग्य और २ अ श्य-स्पर्श करने के योग्य । प्रजासे अलग रहने वाले चमार और भंगी आदि - अस्पृश्य और नाई are स्पृश्य कहे जाते हैं । यद्यपि उक्त भेदोंमें सत्-शूद्रोंका कहीं भी उल्लेख नहीं है, परन्तु श्रचार्यश्री का अभिप्राय यह है कि स्पृश्य- शूद्रों-नाई वगैरह में से जिनमें पुनर्विवाह नहीं होता उन्हे सत्-शूद्र समझना चाहिये । क्योंकि पिंडशुद्धि के कारण उनमें योग्यता अनुकूल धर्म धारण करनेकी पात्रता है ||११|| प्रशस्त राष्ट्रों में ईश्वरभक्ति - श्रादिकी पात्रता : याचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥१२॥ अर्थः- सदाचारका निर्दोष पालन - भद्यपान और माँस-भक्षणादिको त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और परिप्रहपरिमाण इन पाँचों व्रतोंका एकदेश- श्रब्रव रूपसे - पालन करना, गृहके बर्तन और वस्त्रादिकों की शुद्धि-स्वच्छता और शारीरिक शुद्धि-अहिंसा आदि व्रतोंका पालनरूप प्रायश्वित विधि शरीरको विशुद्ध करना ये सद्गुण प्रशस्त शूद्रको भी ईश्वर भक्ति तथा द्विल--त्राह्मण और तपस्वि यी सेवा योग्य बना देते हैं। निष्कर्ष::- उक्त ११वें सूत्रमें आचार्यश्रीने प्रश-वशूद्रका लक्षण -निर्देश किया था। १२ सूत्रद्वारा निर्देश करते हैं कि उनमें उक्त आचार-विशुद्ध और गृह के उकरणों की शुद्धि आदिका होना अनिवार्य है तभी वे ईश्वर, द्विजाति और तपस्थयों की सेवा के योग्य हो सकते हैं; अन्यथा नहीं । यह आचार्यश्री का अभिप्राय है ॥१२॥ १ तथा च भगवजिनसेनाचार्य: शुभ पातद्बुद्धि का स्मृता ॥३॥ • श्रादिपर्व १६: २ देवी आदिपुराण पर्व १६ या नीतिवाक्यामृत पृष्ठ ६५ यो ३ श्राचाराश्नवचत्वं शुचिकरस्वरः शरीरशुद्धि ऐसा पाठ ० ० पुस्तक में है परन्तु कति जानपि देव हमास उपस्थि परिकर्मसु बोम्पान् मेद कुछ नहीं है।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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