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________________ * नीतिवाक्यामूस* १२६ MARAawuneHIMMA R uramurt.. HMMI............... .. Him नामके विद्वानने लिखा है कि मकानके वर्सनोंकी गुद्धि, प्राचारकी पवित्रता और गुरु सात् शूद्रको भी देवादिकी सेवाके योग्य बना देते हैं ।।१।।" पारों कणों के समान धर्मका निर्देश:-- समपामाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छानियमः प्रतिलोमाविवाहो' निषिद्धासु च स्त्रीषु रवि सर्वेणी समानो धर्मः ॥ १३॥ समस्त प्राणियोंपर दया करना, सत्यभाषण, अचौर्य, इच्छाओंको रोकना, स्वजातिमें गोत्रको बहसबंध और परस्त्रियोंमें ब्रह्मचर्य-मातृ-भगिनी-भाव यह ब्रामण, क्षत्रिय, वैश्य और शव का समान धर्म है ॥१३॥ र विदामने लिखा है कि 'समस्त प्राणियों में दयाका बर्ताव, सत्य बोलना, चोरीका का नियम (रोकना), स्वजातिमें विवाह करना और परस्त्री सेवनका त्याग करना यह बाल करपाण करनेवाला समान धर्म है ॥शा' ने या विशेष धर्मका मिश:माहित्यावखोकनवत् धर्मः खलु सर्वसाधारणो विशेषानुष्ठान तु नियमः ॥१४॥ --पूर्वोक्त साधारण धर्म-अहिंसा, सत्य और भयौर्य-आदि-सूर्य के देखने की तरह समस्त गाव-जिसप्रकार सूर्य का दर्शन सभी योंके लोग करते हैं, इसीप्रकार उक्त धर्म भी सभी नयोको समान रूपसे पालन करना चाहिये, परन्तु प्रत्येक वर्षे और पाश्रमके विशेष कत्तव्य OM. निधान्ने लिखा है कि 'महर्षियोंने जिस वर्णके जो कर्तव्य निर्देश किये हैं उन्हें उस वर्णवा. मा चाहिये। केवल सर्वसाधारण धर्मका पालन करके ही सन्तुष्ट नहीं होना चाहिये ।। सामावि शुदानि व्यवहारः सुनिर्मक्षः । Pापक करोत्येव योग्यं देवादिए जने || माविलोम्याविया ऐसा पाठ मु०म० पुस्तकमें है परन्तु अर्थभेद कुछ नही है। FH रहा सलमचौर्य च नियमः स्वविवाहकम् । वन कार्य धर्म: सार्वः प्रकीर्तितः ॥१॥ नोट:- श्लोकके चतुर्थचरणमें 'घमः सर्वैः रितीरता पेसा मशुर पाट म. टी. पु.में । उसे क्यरचना करके संशोधित एवं परिवर्तित किया है। सम्पादक-- मारदःनईख यत् प्रक्रमनुष्ठान महर्षिभिः । पालवं विशेषोऽयं तुभ्यधर्मो न केवलं ।।।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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