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________________ .... ........... .air .randiram राजरक्षा समुरेश ३०० सरि समान प्रति निपुण वैद्य के द्वारा भी नहीं बचाया जा सकता । सारांश यह है कि जिसप्रकार जीवन रक्षामें आयु मुख्य है, उसीप्रकार राष्ट्र के सात अगों (स्वामी, मंत्री, राज्य, किला, खजाना, सेना व मित्रवर्गमें राजाकी प्रधानता है, अत: सबसे प्रथम उसे अपनी रक्षा करनी चाहिये ॥६॥ व्यास' ने भी कहा है कि काल-पीड़ित पुरुष मंत्र, तप, दान, वैद्य व औषधि द्वारा नहीं बचाया जासकता। राजाके पाम रहनेवाली स्त्रियां होती हैं और विशेष तौर से पास रहनेवाले कुटुम्बीजन व पुत्र होते हैं। इसलिये उसे सबसे पहिले स्त्रियोंसे पश्चास कुटुम्बियों और पुधोसे अपनी रक्षा करनी चाहिये ॥७ संसार में निकृष-लकहद्वारा-आदि जघन्य-पुरुषसे लेकर चक्रवती पर्यन्त सभी मनुष्य स्त्रीमुस्ख प्राप्त करने के लिये, कृषि व व्यापार आदि जीविकोपयोगी कार्य करके क्लेश बठाते हैं, पश्चात् धनमंचय द्वारा स्त्री-सुख प्राप्त करते हैं ।। गर्ग विद्वान का भी यही अभिप्राय है ॥१॥ जिस प्रकार मुर्दे को वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करना व्यर्थ है, उसीप्रकार स्त्री-हित पुरुषका धनसंचय करना व्यर्थ है ।।५। बल्लभदेव' विद्वान परश का पही पkिin स्त्रियों की प्रकृति का स्वरूपःसर्वाः स्त्रियः क्षीरोदवेला इव विषामृतस्थानम् ॥१०॥ मकरदंष्ट्रा इव स्त्रियः स्वभावादेष पक्रशीलाः ॥११॥ स्त्रीणां नशोपायो देवानामपि दुर्लभः ।।१२।। कलत्र रूपवस्समगमनवशचारमपत्यदिति महतः पुण्यस्य फलम् ॥१३॥ कामदेषोत्संगस्थापि स्त्री पुरुषान्तामभिलादि च ॥१४॥ न मोहो लज्जा भयं स्त्रीणां रवणं किन्तु परपुरलादर्शन संमोगः सर्वसाधारणताच ॥१५॥ मर्ष-जिस प्रकार शोर समुहकी लहरों में विष व अमृत दोनों पाये जाते हैं इसी प्रकार खिमों में भविष (पुस पेना) और अमृस (मख देना) या करवा एवं मदता ये दोनों दोषप गुण पाये जाते, योकि प्रतिकक्ष स्त्री हानिकारक एवं अनुकूल सुख देने वाली होती है ॥१०॥ बल्लभव" ने भी स्त्रियों को इसीप्रकार विष व अमूठ-तुल्य बताया है ॥१॥ बास-मानसपो दान मोर मा । ति परिबात का बक पीवितम् ॥ बाग:-कृर्षि वा विपेय पुस्पाविषमेव | सखीचा मुखाबाय सलो अरुले मनः २ मा बामदेव:-प्रमूतमपि देहितं पुरुषस्य त्रिम विना । मूल्सा मबडन गार तलव ने । तथा च बामदेव:-गाएत नजिकिविको मुक्त्वा निम्तिीम् । विरसा म लायमाणिती । .... --... -.. -..---
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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