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________________ सदाचार समुद्दश ३४५ भगजिनसेनाचार्य' ने भी तप, आगमज्ञान और ब्राह्मण कुझमें जन्मधारण करने वालको सच्चा प्रामण एयं तप और भागमज्ञानसे शुन्य को जाति ब्राह्मण कहा है ॥१॥ नि:स्पृह (धनादिकी नालसा-हित) व्यक्ति परमुखापेक्षी नहीं होत ॥६०|| तृष्णासे कौन मनुष्य दुःखी नहीं होता ? सभी होते हैं ।।६॥ सुन्दर कपिने भी नृष्णाको दुःखका और संतोषको सुखका कारण बताया है ॥१ लोकमें वही बुद्धिमान् मनुष्य, चाहे वह यति-पाश्रम वा गृहस्थ माश्रम में प्रविष्ट हो, वभी र पद प्राप्त कर सकता है जब या चित आम और हरदा दूषित न हो !शीन (नैतिक प्रवृति) ही पुरुषों का प्राभूषण है, ऊपरी कटक-इसलादि शरीरको कष्ट पहुंचाने वाले हैं। मत: ये वास्तविक भाभूषण नहीं ॥६३।। नीतिकार भर्तृहरिने भी कहा है कि कानोंकी शोभा शास्त्र सुननेसे है, न कि फण्डल पहननेसे, हाथोंको शोभा पात्रदानसे है, न कि ककरण धारण करनेसे एवं दयालु पुरुषों के शरीर की शोभा परोपशवसे है, न कि चन्दनादिक मेप से || राजा किसका मित्र होता है ? किसीका नहीं, क्योंकि अपराध करने पर वह मित्रको भी दण्ड देनेसे नहीं चूकता ॥६५॥ दुर्जनके साथ भी सजनताका पर्वाव करना चाहिये, इसको छोड़कर नसके प्रति भौर कोई करीन्य नहीं; क्योंकि भलाई का वर्भाव करनेसे प्रायः वे अपनी दुष्टता छोड़ देत ॥६॥ किसी कारणवश याचक को कुछ देने में असमर्थ होने पर भी मनुष्यका कर्तव्य है कि वह उसके साथ कठोर वचन कमी न बोने, क्योंकि इनका प्रयोग उसकी प्रतिष्ठा व मर्याराको नष्ट कानक माथस याचक को भी असंतुष्ट कर डालता है. जिसके फलस्वरूप वह उसका अनिष्ट चिन्तन करने लगता है ।।६६|| उस स्वामीको याचक जोग मरुभूमिके समान निष्फल समझते हैं, जिसके पास पाकर वे लोग इपिछत वस्तु प्राप्त कर अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर पाते ॥६॥ प्राणियों की रक्षा करनाही राजाका यज्ञ (पूजन) है, न कि प्राणियों की बलि देना ॥८|राजाको अपनी प्रचुर तीरन्दाज 4 सैनिक शक्ति का उपयोग शरणागतों की रक्षार्थ करना चाहिये न कि निरपराध प्राणियों की इत्यामें। पनि सदाचार-ममुद्देश। . नया च मगजिनसेनाग:-तपः श्रुतं च जातिरस प्रय ब्रामसकारयं । नप: ताभ्यो यो हीनो जातिमामा एक सः ॥ शादिपुगार । २ तथा स सुनदर कविः-जो इस बोस पास भये शत पर करोर की बाह सगेगी, भाव सारव को अब भयो जे धरापति होने को चाह जगेगी। उदय अस्त तक सम्म भयो पर तृष्णा और तो और बढ़ेगी, सुन्दर एक मंतोष विना नर वेसे तो भूख कभी व मिटेगी ।।१ तथा च भर्तृहरिः-श्रोत्र' श्रुतेनैव म कुरटेन, दानेन पानि तु रोग। रिमाति काय: करुवालाना, परोपकारेण न तु पादनेन ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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