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________________ व गर्भजल विशेष पवित्र है ॥ ४६ ॥ व्हान समुद्देश ६४५ MPS मनु' के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥ उत्सव मनाने की सार्थ या कभी है जब कि इस अवसर पर बन्दियों कैदियों का छुटकारा और अनाथोंकी रक्षा की जायें, पर्व ( रक्षाबंधन आदि ) मनाने की भी सार्थकता तभी है, जबकि इस अवसर पर अतिथियों और फुटुम्बीजनों को दान-सम्मान द्वारा अत्यन्त संतुष्ट किया जाये ।। ५०-५१ ॥ भारद्वाज ने भी पर्व के दिनों में अतिथिसत्कार व कुटुम्ब-पोषण का संकेत किया है ॥ १ ॥ तीस तिथियों में से वे ही तिथियां सार्थक हैं जिनमें मनुष्य पापाचरण से हटकर धर्माचा की मोर असर होता है ॥ ४२ ॥ जैमिनि ने भी पाप युक्त तिथियों को निरर्थक व धर्मयुक्त को सार्थक कहा है ॥ १ ॥ जहां जाकर लोग पाप में प्रवृत्ति नहीं करते, वही उनकी वास्तविक तीर्थयात्रा है सारांश यह कि तीर्थस्थान का पाप वाजेप की तरह अमिट होता है, श्रवः वहां पर पाक्रियाओं को त्याग करना चाहिए ।। ५३ ।। किसी नीतिकार के उद्धरण से भी यही बात प्रतीत होवो है ॥ १ ॥ अपनी आयु और विधानुकून सत्कर्त्तव्य का पालन करनेवाले विद्वान् की विद्वत्ता सकती है ॥४॥ गुरु ने भी विद्या व आयु के योग्य सत्कर्त्तव्य-परात व योग्य बेपवारण करनेवालेको विद्वान माना है ॥ १॥ दूसरे से प्रीति उत्पन्न करके उससे अपना प्रयोजन सिद्ध करना 'चातुर्थ' नामक सद्गुण है ॥५५ ॥ शुक्र ' ने भी सामनोति द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करनेवाले को चतुर और दंड-भेद-आदि द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध करने वालेको 'मूर्ख' कहा है ॥ १ ॥ विवेकी मनुष्यका वही लोकोपयोगी नैतिक सरकसंध्य है जिसके अनुष्ठान से वह लोकप्रिय ( सबका प्यारा ) हो जाया है ॥ ५६ ॥ सज्जनता व वीरताका माहात्म्य, सौभाग्य, सभा-दोष, हृदय-हीन के अनुरागकी निष्फलता, निन्द्य स्वामी, लेखका स्वरूप व उसका अप्रामाण्य, तरकाल अनिष्टकारी पाप, बलिके साथ विमइसे हानि, धनवान् का आश्रय पाकर उससे उदवडता करने से हानि, प्रवासका स्वरूप व उसका सुख १ तथा मनुःआपः स्वभावतोमेयाः किं पुनर्वहिताः । तस्मात् सम्यस्वदिच्छन्ति स्मानमुष्येन पारिया ॥१॥ २ तथा च भारद्वाजः - प्रतिथिः पूज्यते यत्र पोषयेत् स्वपरिग्रहं । तस्मिम्नहनि सर्वाणि पर्वाहि मनुरवीत् ॥ २ ॥ ● तथा च जैमिनिः— पासुन क्रियते पाता एव विषयः स्मृताः । शेषा वंधत्रास्तुविज्ञेया इस्वेवं मनुरवीत् ॥१॥ ४ तथा श्रोक्तः— प्रयत्र यत् कृतं पापं तीर्थस्थाने प्रभावि तत् । क्रियते सीधगच्च बसले तु जायसे ॥ ५ ॥ २ तथा गुरुः-- विद्याया वबलश्चापि या योग्या किया इ४ । तथा वेषश्च योग्यः स्यात् स शेषः परिज ६ तथा च शुक्रः—पः शास्त्रात्साधयेद कार्यचतुरः स प्रकीर्तितः । साधर्मान्ति मेदाय में से अतिविष विशः ॥ १ ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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