SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * नीतिवाक्यामूस * अर्थः-जो मनुष्य शास्त्रका अध्ययन नहीं करता वह तिब्रह्मा-ऋषभदेव तीर्थर-का ऋणी है। ऋषिपुत्रक' विद्वानने कहा है कि 'जो ब्रह्मचारी अज्ञानसे वेदोंका अध्ययन नहीं करता उसका ईश्वरऋण ब्याजयुक्त होनेसे बढ़ता रहता है ॥ १ ॥' । भावार्थ:-ऋषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विशति-२४ तीर्थकरोंकी दिव्यध्वनिके आधारसे ही द्वादशा-अहिंसाधर्मका निरूपण करनेवाले शास्त्रों की रचना हुई है, श्रतएव उन्हें मनुष्यजातिको सम्यग्ज्ञाननिधि समर्पण करनेका श्रेय प्राप्त है। इसलिये जो उनके शास्त्रोंको पढ़ता है यह उनके ऋणसे मुक्त होजाता है और जो नहीं पढ़ता वह उनका ऋणी रहता है। निष्कर्षः-यश्चपि उक्त निरूपण लौकिक व्यवहाररूप है। तथापि श्रेयकी प्राप्ति, ऋषभादित्तीर्थकरोंके प्रति कृतज्ञताप्रदर्शन करने और अज्ञाननिवृत्ति के लिये प्रत्येक व्यक्तिको निर्दोष-अहिंसाधर्मनिरूपकशास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये ॥ १४ ॥ अब ईश्वरभक्ति न करने वालेकी हानि बताते हैं: अयजनो देवानाम् ॥ १५॥ __ अर्थ:-जो मनुष्य देवों-अषभादिमहावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थङ्करों-की भक्ति-पूजा - नहीं करता यह उनका ऋणी है। भावार्थ:-आचार्यश्री विद्यानन्दिने' श्लोकवार्तिकमें कहा है कि प्रात्यन्तिक दुःग्योंकी नियुक्ति-- मोजकी प्राप्ति-सम्यग्ज्ञानसे होती है और यह-सम्यग्ज्ञान-निर्दोप द्वादशाङ्गके अध्ययनसे प्राप्त होता है एवं उन द्वादशाङ्ग शास्त्रोंके मूल जन्मदाता (आदिवक्ता ) ऋषभादिमहावीरपर्यन्त चतुर्विशति तीर पूज्य है; क्योंकि सज्जन लोग किये हुए उपकारको नहीं भूलते। अत: उन्होंने मनुष्योंके हृदय मन्दिरोंमें सद्बुद्धि और सदाचारके दीपक जलाकर उनका अनन्त और अपरिमित्त उपकार किया है ॥११॥ इसलिये जो व्यक्ति मूर्खता या मदके घशमें होकर उनकी भक्ति-पूजा-नहीं करता वह उन तीर्थकरोंका ऋणी है। १ तथा च ऋषिपुत्रक: ब्रह्मचारी न घेदं यः पठते मौढ्यमास्थितः । स्वायंभुवमृणं तस्य वृद्धि याति कुगीदकम् ||१|| २ 'अयजमानो देवानाम्' इसप्रकार मु० म० एस्तक में पाट है परन्तु अर्धभेद कुछ नहीं है। ३ अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः । प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरामात् || इति प्रभवति स पूज्यस्त्वत्प्रसादमबुदध । न हितमुपकार साषवो विस्मरन्ति शा श्लोकवार्तिक पृष्ट ३ विद्यानन्दि-प्राचार्य ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy