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HI 10-14
* नीतिवाक्यामृत
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free:--- प्रत्येक मनुष्यको देवऋण से मुक्ति छुटकारा एवं श्रेयकी प्राप्तिके लिये ईश्वरभक्ति करनी
करनेवाले मनुष्यकी हानि बताते है:
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अन्तकरो मनुष्याणाम् ॥ १६ ॥
को शोक उत्पन्न न करनेवाला मनुष्योंका ऋणी है --अर्थात् जिसकी मृत्यु होजाने पर सम्मान – थोड़ासा भी - शोक उत्पन्न न हो बाड़ मनुष्यजातिका ऋणी है। अथवा इस भी होसकता है कि जो मनुष्य दूसरोंको दुःखी देखकर 'इन्त' इस प्रकार खेदसूचक शब्द - दूसरोंके दुःखमें समवेदना प्रकट नहीं करता - वह मनुष्यों का ऋणी है।
-शोकने दो प्रकारके मनुष्य होते हैं । उत्तम - स्वार्थत्यागी और अयम स्वार्थान्ध । अपने जीवनको कविकी शीशीके समान क्षणभंगुर समझकर स्वार्थको ठुकराकर जनता यह और अपने जीवनको विशुद्ध बनाते हैं, अतः उनकी लोकमें चन्द्रवन्निर्मल कीर्ति होती हैं। पालन- लोकसेवा--से जनता के ऋणसे मुक्त होजाते हैं, क्योंकि उसके फलस्वरूप जनता होमाने पर शोकाकुल होती है । परन्तु दूसरे स्वार्थान्ध पुरुष परोपकार नहीं करते और तेरें, अतः उनके मरजाने पर भी किसीको जरा भी शोक नहीं होता, इसलिये वे लोग ऋणी समझे जाते हैं ।। १६ ।।
वारी पुत्रशून्य होने पर भी ऋणी नहीं होता इसे बताते हैं :----
आत्मा वै पुत्रो नैष्टिकस्य ॥ १७ ॥
- मैटिक मशचारीका आत्मा ही पुत्र समझा जाता है ।
विद्वान्ने लिखा है कि 'जो नैष्ठिक ब्रह्मचारी अपनी आत्मामें परमात्माका प्रत्यत्त कर शास्त्र पद लिये, ईश्वरभक्ति करली और पुत्रके मुखको भी देख लिया अर्थात् वह पितृ ऋण से हैवाया है ॥ १ ॥
नैष्ठिक ब्रह्मचारी – जन्मपर्यन्त ब्रह्मचर्य से रहनेवाला होता है अतः उसे पुत्रकी कामना उसे मुक्त होने की आवश्यकता नहीं रहती ।। १७ ।।
यष्टं च पुत्रस्यामकिर्त मुखं । मते यस्तु परमात्मानमात्मनि ॥ १ ॥
पारीका महत्व बताते है:
अमारमात्मानमात्मनि संदधानः परां पूतत सम्पद्यते ॥ १८ ॥
[सं० टी० पु० में नहीं है किन्तु मु० मू० पुस्तक से संकलन किया गया है।
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