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________________ नीतिवाक्यामृत F÷÷÷4-11GAALPROTNYEL ........................ माता पिता की अकुलीनता उनके पुत्रों को विकार-युक्त नीचकुलका बना देती है एवं सन्तान के जघन्य आचरण से माता पिताकी अकुलीनता जानी जाती है ॥ ६८ ॥ सम पुत्रकी उत्पत्तिका उपाय -- कुलविशुद्धिरुभयतः प्रीतिर्मनः प्रसादोऽनुपहतकालस मयश्च श्रीसरस्वत्यावाहन मंत्रपूतपरमा श्रीपयोगश्च गर्भाधाने पुरुषोत्तममवतारयति ॥६६॥ अर्थ- दम्पति निम्नप्रकार कारण सामग्री से उत्तम, कुलीन व भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न करते हैं । १- कुलविशुद्धि - दम्पतिके माता पिताका वंश परम्परा से चली आने वाली पिंड-शुद्धि से शुद्ध ( सजाति) वंश होना चाहिये । ३१८ भजनसेनाचार्य' ने भी कहा है कि वंश-परम्परासे चली आई पिता की वंश-शुद्धि 'कुल' और माता को वंश शुद्धि 'जाति' है एवं दोनों (कुल व जाति) की शुद्धिको 'सज्जाति' कहते हैं। अभिप्राव यह है कि जिन दम्पतियों के बीज-वृक्ष समान परम्परासे चले आये हुए वंशमें समान गोत्रमें विवाह आदि द्वारा पिंडमें अशुद्धि न हुई हो, किंतु एक जाति में भिन्न गोत्रज कन्या के साथ विवाहसंस्कार द्वारा प्रवाह रूप से चला आया हुआ वंश विशुद्ध हो, उसे 'सज्जाति' कहते हैं। उसकी प्राप्ति होने से कुलीन पुरुष को बिना प्रयत्न किये प्राप्त होने वाले सद्गुणों (शिक्षा व सदाचार आदि) के साथ साथ मोचके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यम्चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभता से होजाती है । उक्त सज्जाति का सुरक्षार्थं आचार्य श्रीने गर्भाधानादि संस्कारों से उत्पन्न होने वाली दूसरो सज्जाति का निरूपण किया है, जिसके द्वारा कुलीन भव्य पुरुष द्विजम्मा – वो जन्म वाला ( १ शरीर जम्म २ संस्कारों से होने वाला श्रहम-जन्म) कहा जाता है, जिसके फल स्वरूप उसमें नैतिक व धार्मिक सत्कर्तव्य-पालन की योग्यता उत्पन्न होती है। जिसप्रकार विशुद्ध खानिले उत्पन्न हुई मणि संस्कार से अत्यन्त उज्ज्वल हो जाती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी क्रिया (गर्भाधानावि) व मंत्रोंके संस्कार से अस्पत निर्मल- विशुद्ध होजाती है एवं जिसप्रकार सुवर्णपाषाण उत्तम संस्कार क्रिया (छेदन, मेदन व पुटपाक आदि) ले शुद्ध होजाता है, उसीप्रकार भव्य पुरुष भी उत्तम क्रियाओं (संस्कारों) को प्राप्त हुन्छ विशुद्ध हो जाता है। वह संस्कार धार्मिक ज्ञानसे उत्पन्न होता है, और सम्मान सर्वोत्तम है, इसलिये अब यह पुण्य वान् पुरुष साक्षात् सर्वशदेव के मुखचन्द्र से सम् ज्ञानामृत पान करता है तब वह सम्मज्ञानरूपगर्भसे १ तथाच सावधि जनसेना चार्थः पितुरन्यशुद्धियां तत् परिभाष्यते । मातुरम्यशुद्धिस्तु जातिरित्ययि ॥३६॥ विशुद्धियभवस्यास्य सज्जातिरनुचर्षिता । पस्प्राप्ती सुखभा वोधिरयत्नोपन यौः ॥ २॥ - हसंस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरनुकोरर्थव । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भध्यात्मा समुपाश्नुते ॥३॥ विशुद्धभूतो मयि संस्कारयोगतः । कर्षं वमात्मैव क्रियामन्त्रैः सुसंस्कृतः ||५|| सुमखभ्रातुरभवा शुद्धदासाय संक्किम । यथा तथैव व्यात्मा शुश्रूयत्यासादकियः ॥५॥ शानयः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमन्तर ं । मयि समयं साक्षात् सर्वदिन्मुखतः कृती ||५|| तदैव परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना | जातो मदेव द्विजम्मेति वयं शीरच भूषितः ||७|| भाषि पशव से
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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