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________________ . SE * नीतिबाक्यामृत * वार्थ:-जो मनुष्य अपनी आमदनी आदि पर ध्यान न देकर शनिको उल्लङ्घन करके दान में प्रवत होता है उसका दान जघन्य कोटिका समझना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे वह ऋणमें साया है और उसका कुटुम्ब भी दुःग्यी होजाता है पुन: कुछ कालके पश्चात् उसे अपना देश छोड़ना गया है। अतएय विवेको पुरुषको अपनी आमदनीके अनुमार यशाशक्ति दानधर्म में प्रवृत्ति लावाहिये । मोतिकार शुक्रने' भी लिया है कि 'जो लय कि अपनी आमदनीसे अधिक दान करता है उसके अन्वी कर्जामें फैलकर दुःखी होनाते हैं, और अन्त में यह दाना भी कर्ज आदिके भन्यसे उस देशको र सरे रामें चला जाता है ॥१६॥ विगति आचार्यने सुभाषितरत्नमद्रोहमें लिया है कि जिनमनमें श्रद्धा रखनेवाला भव्य पुरुष नारा करने के उद्देश्यसे पात्र-दान करता है उसके प्रभावमे यह स्वर्गोमें देवाङ्गनाओंका स्वामी साथ भोग भोगता है, पुनः वहांने चय करके उत्तम कुलमै मनोज्ञशरीर प्राप्रकरके जैनधर्म मानावरणादि कर्म शत्रुओंका नाशकर मोक्षसुम्बको प्राप्त होता है ।।१॥ ल:-उक्त प्रमाणमे पात्रदानका अनुपम और अचिन्त्य माहास्य होनेपर भी नैतिक पुरुषको अपनी आमदनीके अनुसार यथाशक्ति पात्रदानमें प्रवृत्ति करनी चाहिये जिससे उसके कुटुम्बी कट न और उसके चित्तमें भी किसी प्रकारकी आकुलता न हो ||७ तिने मापना करने वाले (भिक्षुक) के विषयमें लिखते हैं : स खल्बर्थी परिपन्थी यः परस्य दोस्थित्यं जाननप्यभिलपत्यर्थम् ॥८॥ अर्थ:-जो याचक दूसरेकी दरिद्रताको जानता हुआ भी उममे याचना करता है-अपने लिये माँगवा है यह उसका निश्चयसे शत्रु है। क्योंकि उस याचफसे उस दरिद्र दानाको पीर होनी इसलिये वह भिक्षुक उस दरिद्र व्यक्तिका शत्रु हुआ | ..: मिष्कर्ष :-अतः याचकका कर्तव्य है कि जब वह दूसरेको दरिद्रताका विरचय करने तो उससे वापि वाचना न करे ।।८।। पहस्पति' नामके विद्वानने भी सूत्रकारके अभिप्रायको व्यक्त किया है कि 'जो भिन्तुक दाताकी १ तथा च शुक्र : मागतेपधिक म्यागं यः कुर्यात् तत्सुतादयः । .इरियताः स्युः ऋणग्रस्ता: सोऽपि देशान्तरं मजेत् ॥१॥ रथा च हस्पति :प्रसवमपि यो सौल्याजानन्नपि च याचन । पापुः स तस्य शत्रुहि, यद्वानो दुःखश्चायच्छति ? 111 [ोट :-इस श्लोकका चतुर्थचरण बिलकुल श्रगुद्ध है, हमने उसकी निम्नयकार नवीन रचना करके मैश धित और परिवर्तित करते हुए अर्थमंगति टीककी है 1] अनुवादक : असन्तमरि यो लोल्याजानन्मपि च याचने । साय: स तस्य शत्रुईि यदुःखेन प्रयच्छति ।।१॥ संशोधित और परिवर्तित ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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