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________________ के नीतिवाक्यामृत नहीं करती-निर्दयी पुरुष कितनीभी शुभ-क्रियाएं करते हो तथापि उनसे उनका कल्याण नहीं हो सकता ॥ नीतिकार न्यासने' भी उक्त बातका समर्थन किया है कि 'जो व्यक्ति निरपराध प्राणियों का वध करता है वह निर्दयी है उसकी पुण्य क्रिया निष्फल होती है और उसकी आपत्तियाँ बढ़ती रहती है। ॥१॥ निष्कर्षः-अतः सुखाभिलाषी पुरुप कदापि जीवहिंसामें प्रवृत्ति न करे ।।५।। अब दयालु पुरुषोंका फथन करते हैं: परत्राजिघांसुमनसा व्रतरिक्तमपि चित्तं स्वर्गाय जायते ॥ ६॥ अर्थ.-दूसरे प्राणियोंकी रक्षा करने वाले (दयालु ) पुरुषोंका चित्त प्रवाहित होकरके भी स्वर्ग के सुत्रोंको उत्पन्न करने में समर्थ होता है---जो धार्मिक पुरुष प्राणियों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं वे दूसरे व्रत और नियः न भी पास हो तो उन्हें समय सनोइ सुख प्राप्त होते हैं ॥६ __यशस्तिलक के चतुर्थ श्राश्यासमें भी प्राचार्य श्री लिखते हैं कि जो राजा दीर्घायु, शक्ति और ग्रारोग्यता चाहता है उसे स्वयं जीवहिंसा न करनी चाहिये और राज्य में प्रचलित जीवहिंसा को रोकना चाहिये । क्योंकि एक पुरुष सुमेरुपर्यततुल्य-विपुल सुवर्णराशिका या समस्त पृथ्वीका दान कर देता है परन्तु यदि कोई दूसरा ब्यक्ति एक प्राणीके जीवनकी रक्षा करता है तो इस जीव रक्षाके सामने उस महादान की तुलना नहीं हो सकती-अर्थात् अभयदान ( जीवरक्षा) करनेवालेको विशेष फल मिलेगा || ___ जिस प्रकार लोग अपने शरीरको दुःख नहीं देना चाहते उसी प्रकार यदि दूसरोंको भी दुःख देनेकी इच्छा न करें तो उन्हें कभी किसी प्रकारका कष्ट नहीं होसकता ॥३॥ व्यासने भी उक्त यातका समर्थन किया है कि "जिनका चित्त दूसरों के घात करनेमें प्रवृत्त नहीं होता वे ( दयालु पुरुष ) दूसरे प्रतोंसे शुम्य होनेपर भी स्वर्गके सुखोंको प्राप्त करते हैं। ॥१॥ निष्कर्ष :-अतः सुखाभिलाषी शिष्टपुरुष सदा प्रारिणरक्षा में प्रवृत्ति करे ।।६।। अब शक्तिसे बाहर दान करनेका फल बताते हैं : स खलु त्यागो देशत्यागाय यस्मिन् कुते भवत्यात्मनो दौःस्थित्यम् ॥७॥ अर्थ :- जिस दानके करनेसे दाताके समस्त कुटुम्बीजन दरिद्र होकर दुःखी होजाते हैं वह दान उसको देश त्याग कराने के लिये है। १ तथा च ध्यास:अहिंसकानि भूतानि यो दिनस्ति स निर्दयः। नस्य कर्मकिया ध्यर्था बद्धन्ते वापद: सदा ||१|| २ तथा च व्यास :येमा परविनाय नात्र चित्तं प्रबनते । श्रनतारने अत्याः सर्ग यान्ति दयान्विताः ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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