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________________ नीतिवाक्यामृत FR मास विद्वानने लिखा है कि 'जिस देशमें राजा राजनीति-विद्या में निपुण और विशेष प्रतापी उसका वह देश चोर आदि अभ्याथियों द्वारा पीड़ित नहीं किया जाता ||१' द्वारा देश में अकाल पैदा करनेवाले व्यापारियों से हानि: 1: अन्यायवृद्धितो घालू पिकास्तंत्र' देशं च नाशयन्ति ॥ २३ ॥ - पूर्वोक्त राष्ट्र-कष्टों में से अनका संग्रह करके दुर्भिक्ष - अकाल-पैदा करनेवाले व्यापारी अथायी वृद्धि करते हैं, इससे वे राष्ट्रके समस्त तंत्र- व्यवहार या चतुष्पद-आदि (गायपशुओं आदि) तथा समस्त देशको नष्ट कर देते हैं। विद्वान् भी उक्त बातका समर्थन करता है कि 'जिस देशमें वार्द्ध पिक अन्न संग्रह द्वारा वि पैदा करनेवाले व्यापारी लोग अनीति से अधिक संख्या में बढ़ जाते हैं, वह देश नष्ट हो बांके गाय-भैंस आदि पशुओं की भी विशेष क्षति - हानि होती है ॥ १ ॥ ' . मिष्कर्ष::- अतः राजाको ऐसे अन्याथियोंकी कदापि उपेक्षा नहीं करनी चाहिये जिससे वे राष्ट्र में न कर सकें ॥ २३ ॥ -संग्रह द्वारा राष्ट्र में अकाल पैदा करनेवाले व्यापारियोंका कड़ी आलोचना: कार्यकार्ययोर्नास्ति दाक्षिण्य वार्द्ध पिकानाम् ॥ २४ ॥ बाषिकों-लोभवश राष्ट्रका श्रम मंग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करनेवाले व्यापारियों के कर्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें मरलता नहीं होती -- वे कुटिल प्रकृतिवाले होते हैं । श्रमावार्थ:- अम-संप्रहकर्ता व्यापारियोंके साथ यहि उपकार भी किया जावे - उन्हें इंडिस न (सा- तो भी वे कृतघ्नताके कारण लोभ-वश अपनी अन्न संग्रद्दकी प्रकृतिको नहीं छोड़ते । एवं यदि साम अपकार किया जावे- उन्हें दण्डित किया जावे तो भी वे निर्लज्ज होने के कारण अपनी अन कतिको नहीं छोड़ते ; अतएव राजाको उनकी कदापि उपेक्षा न करनी चाहिये- उन्हें इसतरह से करमा चाहिये ताकि भविष्य में ऐसा नीतिविरुद्ध कार्य न कर सकें ॥ २४ ॥ ; हारीस विज्ञानूने भी उक्त बातकी पुष्टि की है कि 'अन-संग्रह द्वारा दुर्भित पैदा करनेवाले या जवाज लेनेवाले व्यापारियोंके साथ असंख्यातवार उपकार-अनुपकार भी किये जावें, तो भी वे सरल नहीं होते अर्थात् दण्डित न किये जाने पर कृतन और दण्डित किये जाने पर ये है ॥ १ ॥ म्यासः यथोक्रनीतिनिपुणो यत्र देशे भवेन्नरः । समतापो विशेषे चौराई नेस पडते ॥१ अन्याययो वा विकास्तं कोशं देशं विनाशयति' इस प्रकार सुत्र इ० लि० मू० प्रतियों में पाठ अर्थ-भेद कुछ नहीं है। [ बाद पिका देशं नीत्या बुद्धिमाययुः । सर्वलोकक्षयस्तत्र तिरश्चां च विशेषतः ॥ १ ॥ - बाट प्रिकस्य दाक्षिएवं विद्यते न कथंचन । कृत्याकृत्यं तदर्थ च कृतैः संख्यविश्वजितैः ॥ १ ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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