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________________ मित्र समुरेश अर्थ-जो पुरुष सम्पत्तिकालकी वरह विपत्तिकाल में भी स्नेह करता है उसे "मित्र' कहते है। सारांश यह है कि जो लोग सम्पत्तिकालमें स्वाधं-वश स्नेह करते हैं और विपत्तिकालमें धोखा देते हैं मित्र नहीं किन्तु शत्र हैं ॥११॥ जैमिनि विद्वान्ने भी सम्पत्ति व विपत्तिकालमें स्नेह करनेवाले व्यक्तिको 'मित्र' कहा है।शा वे दोनों व्यक्ति परस्परमें नित्यमित्र होसकते हैं जो शत्रकत-पीड़ा-आनि मापत्तिकालमें परस्पर एक दूसरेके द्वारा बचाये जाते हैं या बचाने वाले हैं ।।२।। नारद विद्वामने भी नित्यमित्रका यही लक्षण बताया है ।।१।। वंशपरम्परा के सम्बन्धसे युक्त, भाई-मादि सहज मित्र हैं ॥३॥ भागुरि विद्वान्न भी सहमित्रका यही लक्षण किया है ।।१।। जो व्यक्ति अपनी उखरपूर्ति और प्राणरक्षाके लिये अपने स्वामीसे वेवनचादि लेकर स्नेह करता है, वह 'कृत्रिम मित्र' है। क्योंकि वह स्वार्थ-सिविवश मित्रता करता है और जीविकोपयोगी वेतन न मिलने पर अपने स्वामीसे मित्रता करना छोड़ देता है ॥४॥ भारद्वाज' विद्वान्ने भी 'त्रिम मित्र' का यही लक्षण किया।शा मित्र के गुण व उसके दोष, मित्रता-नाशक कार्य व निष्कपट मैत्रीका सायात एष्टान्तव्यसनेषुपस्थानमर्थेम्वविकल्पः स्त्रीषु परमें शौच कोपप्रसादविषये वाप्रतिपयस्वमिति मित्र. गुणाः ॥५॥ दानेन प्रख्या स्वार्थपरत्वं पिपधु पेषणमहितसम्प्रयोगो विप्रलम्भनगर्भप्रथ परचेति मित्रदोषाः ॥६॥ स्त्रीसंगतिविवादोऽभीचमायाचनमप्रदानमर्थसम्बन्धः परीषदोषग्रहां शल्याकर्णन प मैत्रीभेदकारणानि ॥७॥ न पीराद पर महदस्ति यस्संगविमाण करोति नीरमात्मसमें 10 मित्र के निम्नप्रकार गुण है मर्थ-जो संकट पड़ने पर मित्र के रक्षार्थ बिना बुलाये अपस्थित होता हो, ओ मित्रसेवा-मिति म पाहताहो अथवा जो उसके धनको बल-कपटसे हाप करनेवाला नरो, जिसकी मित्रकी स्त्रीके.प्रति दुर्भावमा न हो, और मित्रके कुछ प्रसन्न होने पर भी उससे ईर्णा न रखे ॥१॥ 1 या जैमिनिा-पत्समको किवात्स्नेह वाहनापति | सम्मित्रं प्रोयते सविपरीवेन रिया ॥१॥ २ - नारपते पम्बमानमा प्रमिबार नरा | रापमान पत्तरिय मित्रमुदते । ५ व्या भाषिः-सम्मानः पूर्वजाना पस्तेज पोज समापौ । मित्रत्वं कपि स सहज मित्रमेव हि ॥१॥ " तबार भारद्वाज:-ति गुमावि प: स्नेहं नास्म कुर मर । तन्मिात्रिमं मानातिनाथपियो जनाः ॥१॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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