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________________ * नीतिवाक्यामृत * जिनका मन याहा और श्राभ्यन्तर परिग्रहोंमें मृच्छोरहित है वे अगण्य पुण्यराशिसे युक्त होकर मयंत्र मुम्ब प्रान करते हैं | जो उदार मनुष्य सत्पात्रोंको दान देता हुआ धनसंचय करना है वह अपने साथ परलोकमें धनको ले जाता है। इससे लोभियोम महालोभी है ।।१।। जो लोभवश परिमाण किये हुए, धनसे अधिक धन संचय करता है उसका यह प्रत नष्ट हो जाना है ।।१।। ओ मनुष्य जानो प्रकार परिग्रहामें लालसा नहीं रखते वे क्षणभरने स्वर्ग और मोजलक्ष्मीके केशपाश पकड़नेम या उसके पाश्वभागमें रहनको समर्थ होते हैं ।।१।। धनकी अधिक श्राकाँक्षा रखनेवालोंका मन अवश्य ही पापोंका संचय करता हुआ उन्हें संसाररूपी भंवरों में फंसा देता है ।।१३।। ॥ इति परिग्रहपारमाणाणप्रतनिरूपणम् ।। श्रब ३ गुणवतोंका' निरूपण करते हैं : गृहस्थतियोंके दिग्नान, देशत्रत और अनर्थदंडनत ये तीन गुणवत सजनोंने निर्दिष्ट किये हैं ॥११॥ गुणत्रती श्रावक "दशों दिशाओंमेंसे अमुक दिशामें और समस्त देशोंमेंसे प्रतिनियत देशमें ही मंग गमन होगा" ऐसा क्रमशः दिग्बत और देशबनमें नियम करता है ।।।। इम प्रकार दिशा और देशका नियम करनेत्रालेका चित्त अधिसे बाहिरके पदामि हिमा, लोभ और उपभोग आदिका त्याग हानके कारण कायम हो जाता है ।।३।। उक्त प्रतकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनेवाले प्रती श्रावकको परलोकमै प्राज्ञा और ऐश्वर्य प्राप्त होते है ।। अब अनर्थदंडननका निरूपण करते है :-- मयूर, मुर्गा, वाज, बिलाव, सर्प, नौला, विष, काँटे, शस्त्र, अग्नि, चाबुक, जाल और रस्सी इन हिमक प्राणियों के पालनेका और कप्रदायक चीजोंके रखनका पापयुक्त उपदेश देना, खोटा ध्यान करना, हिमाप्रधान क्रीड़ा करना, निरर्थक कार्य करना, दूसरोको कष्ट देना, चुगली करना, शोक करना और दुमगेको रुलाना एवं इसी प्रकारके दूसरे कार्य जो क प्राणियोंका बध, अंधन और संरोध करनेवाले है उनका करना, कषायोंकी वृद्धि करनेसे अनर्थदंड कहा गया है ॥१-६-३।। अपने पापारको उत्तम बनानेकी युद्धियुक देशप्रती श्रावक निर्दयी जीवोंका पालन न करे एवं परशु और कृपाण प्रादि हिमाके उपकरणोंको न देवे || अती प्रावक इसके माहात्म्यसे अवश्य ही समस्त प्राणियोंकी मित्रता और उनके स्वामित्वको आन होता है ||शा खोटा उपदेश देकर दुसरीको धोग्या देना, निर्थक, प्रारंभ और प्राणिहिसामें प्रवृत्ति करना, घोड़ों श्रादि पर अधिक बोझ लादना और अधिक कर देना ये पाँच कार्य अनर्थदंवतको नष्ट करते हैं ॥६॥ ॥ इनि गुणवननिरूपणम् || १,२ यशस्तिलक प्राधारने
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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