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________________ ३८ नीविवाक्यामृत ........................... जिस प्रकारबका प्रहार से ताड़ित किये हुये पहाइ पुनः उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार विद्वानों की बुद्धि द्वारा जीते हुये शत्रु भी पुनः शत्रुता करने का साहस नहीं कर सकते । ८-६ ॥ गुरु' ने भी प्रज्ञा (बुद्धि ) शस्त्र को शव से विजय पाने में सफल बताते हुये उक्त बातक। समर्थन किया है ।।१॥ डरपोक, अतिक्रोध, यद्धकालीन राज-फत्तव्य, भाग्य-माहात्म्य, बलिष्ठ शत्र द्वारा अाक्रमण किए हुए राजा का कर्तव्य, भाग्य की अनुकूलता, सार असार संन्य से लाभ व हानि व यद्धार्थ राज-प्रस्थान पर: स्यस्याभियोगमपश्यतो भयं नदीमपश्यत उपानपरित्यजनमित्र ॥ १० ॥ अतितीक्ष्णो बलवानपि शरम इव न चिर नन्दति ।। ११ ।। प्रहरतोऽपसरतो वा समे विनाशे वर प्रहारो यत्र नैकान्तिको विनाशः॥१२ ।। कुटिला हि गतिदेवस्य मुमपुमपि जीवयति जिजीविष मारयति ।। १३ ।। दीपशिखायां पतंगवदेकान्तिके विनाशेऽविचारमपसरेत् ॥ १४ ॥ जीवि. तसम्भव देवो देयात्कालबलम् ॥ १५॥ वरमल्पमपि सार वलन भूयसी मुण्डमण्डली । १६ ।। असारवलभंगः सारवलभंग करोति ।। १७ । नाप्रतिग्रहो युद्धमुयात् ॥ १८ ॥ अर्थ- जिस प्रकार नदी को बिना देखे ही पहले से जते उतारने वाला व्यक्ति हंसी का पात्र होता है, उसीप्रकार शत्र-कृत उपद्रव को जाने बिना पहले से ही भयभीत होने वाला व्यक्ति भी हंसी का पात्र होता है, अतः शत्र का श्राकमा होने पर उसका प्रतिकार सोचना चाहिये ।। १०॥ शुक्र'ने भो शत्र को बिना देखे पहले से ही भयभीत होने वाले के विषय में यही कहा है ॥ १ ॥ अत्यन्त कोधी पुरुष बलिष्ठ होने पर भी अष्टापद के समान चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकता नष्ट हो जाता है। अर्थात्-जिस प्रकार अष्टापद मेघ की गर्जना सुनकर बसे हाथी का विवाह समझ कर सहन न करता हुआ पर्वत के शिखर से पृथिवी पर गिरकर नष्ट होजाता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधी व्यक्ति भी क्रोध-वश अजिष्ठ शत्र से युद्ध करने पर नष्ट होजाता है अतः अत्यन्त काधी होना सचित नहीं॥ ११॥ शत्र से युद्ध करना अथवा युद्ध-भूमि से भाग जाना इन दोनों कार्यों में जब विजगीयु को अपना विनाश निश्चित हो जाय तो उसे युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें मृत्यु निश्चित नहीं होती परन्तु भागमे से अवश्य मृत्यु होती है ॥१२ ।। कम की गति-भाग्य की रेखा-घड़ी पक का जटिल होती है क्यों कि वह मरने की कामना करने वाले को दीर्घाय व जीवन की आकांक्षा करने वाले को मार मालती है ।।१३।। कौशिक ने भी इसी प्रकार देव की वक्रगति का वर्णन किया है ॥१॥ ५ तथा व गुरुः-प्रशास्त्रममोध' च विज्ञानावबुद्धि रूपिवी । तया इसा न जायन्से पता इस भूमिपाः ।।।। . २ तथा शुकः-यथा चादर्शने मना उपानत्यरिमोचनम् । तया राजाबद्दष्टेऽपि भयं हास्याय भूभुजां ॥१॥ ३ तथा च कौशिकः - मतु कामोऽपि पेन्मयः कर्मणा किंडते हिस।वीर्घायु विसेच्छादयो म्रियते तद्रकोऽपि सः ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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