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________________ नीलिवाक्यामृत अपेक्षा वश दुसरे विजिगीष राजाके विषय में जो उपेक्षा करता है उससे यु नहीं करता-से 'उदासीन' कहते हैं ॥ २१ जो पदासीन की तरह मर्यादानीत मंडल का रक्षक होने से अन्य राजा को अपेक्षा प्रबल सैन्यसे शक्तिशाली होनेपर भी किसी कारण वश (यदि मैं एककी सहायता करूगा तो दूसरा मुझसे वैर बाप लेगा-इत्यादि) विजय की कामना करने वाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता हैइससे युद्ध नहीं करता-वह 'मध्यस्थ' कहा गया है ॥ २२ ॥ जो राज्याभिषेक से अभिषित हो चुका हो, और भाग्यशाली, ता, दिनलिमा हो एवं राजनीति में निपुण व शूरवीर हो, इसे "विजिवीष' कहते हैं ॥ २३ ॥ जो अपने निकट सम्बाम्धयों का अपराध करता हुआ कभी भी दुष्टता करने से धाज नहीं पाता उसे 'अरि' (शत्र) कहते हैं ॥ २४ ॥ पिछले मित्रसमुद्देश में जो मित्र' का लक्षण निरूपण किया गया है उस मशवाले को मित्र समझना चाहिये ।२५ विजिगीष के शत्र मत राजा के साथ युस के लिये प्रस्थान करने पर बाद में जो क.द्ध होकर उसके देश को नष्ट भ्रष्ट कर डालता है। उसे 'पाणिग्राह, कहते हैं ।। २६ । जो पाक्षिामाह से बिलकुल विपरीत चलता है--विजिगीष को विजय यात्रा में जो हर तरहसे सहायता पहुँचाता है, उसे 'आक्रन्द, कहते हैं। क्योंकि प्रायः समस्त मीमाधिपति मित्रता रखते है, अत: वे सब श्राक्रन्द है।। २७ । जो पाणिपाद का विरोधी और प्राकमसे मैत्री रखता है.. बापासार' है ॥ २८ ।। शत्र राजा का प विजिगीष गजा इन दोनों के देश में है जोविका सिमो-दोनौतरफ से वेतन पाने वाला १क्त व अदमी में रहने वाला 'बि' है ।। Re ||' युद्ध करने योग्य शत्रु व उसके प्रति राजकतम, शत्र पोके भेद, शत्रता मित्राका कारण व मन्त्रशक्ति, प्रभुशस्ति और सरसाहशक्ति का कथन, व उत्त शक्तित्रय को अधिकता आदि से विजिगीष की श्रेष्ठता भादि मराजचीजी लुब्धः क्षुद्रो विरक्तप्रतिरन्यायपरो व्यानी विप्रतिपमित्रामात्यमामन्तसेनापतिः शत्रु भियोक्तव्यः ॥ ३० ॥ अनाश्रयो दुवैलाश्रयो वा शत्रु रुच्छेदनीयः ॥ ३१ ॥ विपर्ययो निष्पीडनीयः कर्ण यद्वा ॥३२॥ सभामिजनः सहजशत्र: ॥३३॥ विरोधो विरोधयिता वा कृत्रिमः शत्र: ।। ३४ ॥ अनन्तरः शत्रु रेकान्तर मित्रमिति नैषः एकान्तः कार्य हि मित्रत्वामित्रत्ययोः कारणं न पुनधिप्रकर्षसन्निकर्षी ॥ ३५ ॥ ज्ञानबल मंत्रशक्ति A॥ ३६॥ घुद्विशक्तिरात्मशकोरपि गरीयसी ।। ३७ ॥ शशकेनेव सिंहव्यापादनमत्र दृष्टान्तः ॥ ३८॥ कोशदण्डबलं प्रशक्तिः ॥ ३९ ॥ शूद्रकशक्तिकुमागै दृष्टान्तो ॥४०॥ विक्रमो पलं चोत्सा. हशक्तिस्तत्र रामो दृष्टान्तः ॥४१॥ शक्तित्रयोपवितो ज्यायान शक्तित्रयापचितो हीन: समानशक्तित्रयः समः॥४२॥ अ-जो मार से उत्पन्न हो अथवा जिसके देश का पता मालम न हो, जोभी, दुष्टहरय-युक्त जिससे प्रजा ऊब गई हो, अन्यायी, कुमागंगामो, जुत्रा व प्रधान प्रादि व्यसनों में फंसा था, मित्र, अमात्य, सामन्त व सेनापति आदि राजकीय कर्मचारीगण जिमसे विरुद्ध हों. इस प्रकार के शत्र भूत राजा पर विजिगीष को प्राक्रमगार विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये ॥३०॥ A उक्त पारिणिक होने के कारण मु. ५० प्रति से संरखन किया गया है। सम्पादक
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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