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________________ * नीतिवाक्यामृन वमुराजाने पवंतनामक व्यनिहाथ डाला मागापर लिया था इससे वह भार अग्नि और भयमे व्याप्त नरक भूमिको प्राप्त हुभा ॥१४॥ इनि सस्यावनिरूपणम् अब अचौर्यायतका' निम्पण करते हैं। मर्वसाधारणके उपयोग पानेवाले जल और मृण वगैरह पदार्थोको छोड़कर काम और क्रोधादि पाययश दुसरोके धन को बिना दिया हुचा ग्रहण करना चोरी है ॥१॥ कुटुम्मियोंकी मृत्यु हो जानपर उनका धन बिना दिया हुआ भी प्राह्म है। इसके विपरीत जो लोग जीवित कुटुम्मियोंके धनको लोभवश बिना दिया हुश्रा प्रहण करने हैं उनका अचौर्शणुव्रत नष्ट हो जाता है। ___बजाना और म्बानिका धन राजाको छोड़कर अन्यका नहीं हो सकमा; क्योंकि लोकमें जिम धनका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही समझा जाता है॥शा ___ मनुष्योंका स्वयं कमायाहुआ धनभी जब मंदिग्ध ( यह मेरा है अथवा दूसरेका है ? इस प्रकार संदेह युक) हो जाता है तब उम्मको दमरोंका ममझना चाहिये। अत: अचौर्या गुप्रती पुरुपको अपने कुटुम्बके धन को छोड़कर नरेफे धनको बिना निया हुआ ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥४॥ इसी प्रकार उसे मन्दिर, जल,मन और पहा आदि में पड़े हुए दूसरोंके धनको प्रहण नहीं करना चाहिये ॥४॥ नापने और नोलनेके बाँटोंको कमती या बदती रखना, चोरी करने का उपाय बताना, चोरोंके द्वारालाई हुई वस्तुका प्रहण करना और लड़ाई झगड़ाकर के धनका ममहकरना इनमें श्रचौर्यागुणत नष्ट होता है ||६|| जिनका अधौर्याणुप्रत विशुद्ध है उन रत्न, रमाङ्ग, स्नीरत्न, और रत्नजदित वस्त्रादिविभूतियां विना चितवन किय प्राप्त होती है | ___जो लोग नृष्णासे मलिनयुद्धियुन होकर दूसरोंकी चोरी करते हैं उन्हें ऐहिक और पारलौकिक फष्ट होने हैं।॥ ८ ॥ अन्य ब्रह्मचर्याणुव्रतका' कथनकरनेई : . इति प्रचार्यायनिरूपणम् अपनी ग्त्रीको छोड़कर दूसरी समग्स स्त्रियों में माता, बहिन और पुत्रीकी मुसि होना प्राचर्यागुनत है ॥१॥ प्राथर्याणुव्रतकी रक्षाकी मानेपर अहिंसा और सत्य आदि गुण वृद्धिको प्राप्त होते है इसलिये इसे अध्यात्मविद्याविशारदोंने ग्रामचर्य कहा है ||२|| ___ प्रद्राचारीको कामोद्दीपक चरित्र, रस, और कामोद्दीपक शास्त्रों (काममूत्र प्रभृति) से अपनी आत्मामें कामविकारकी उत्पत्ति नहीं होनी देनी चाहिये ।।३।। जिस प्रकार हयन करने योग्य हव्यों (पी और धूप आदि) से अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती एवं बहुत जलमे समुद्र मन्तुष्ट नहीं होता रमी प्रकार यह पुरुष भी मामारिक भोगों (स्त्री भादि) मे मंतुष्ट नहीं होना ।। १।। १, २ ic ।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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