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________________ -...- -- - -. .. -- २० दुर्ग-समुद्देश राज्या व उसके भेद• पस्याभियोगात्परे दुःखं गच्छन्ति दुर्जनोयोगविषया व स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् ॥१॥ तद्धिविष स्वामाविकमार्य च ॥२॥ अर्थ:-क्योंकि जिसके पास प्राप्त होकर या जिसके सामने युद्ध के लिये मुलाये गये शत्रु क्षोग, दुःख अनुभव करते हैं। पयवा यह दुधों योग द्वार। मुम्न होने पाली जिगी फी भापतियां मह करता है, इसलिये इसे "दुर्ग कहते हैं । सारांश यह है कि जब विजिगीषु राजा अपने राज्य में शत्रु मना होने के अयोग्य विकट स्थान (किला, वाई आदि) बनवाता है, तब शत्र लोग उन विष्ट सानों से दुःखी होते हैं. क्योंकि सनके हमले सफल नहीं हो पाते एवं तुष्टों द्वारा होने वाले मात्रामा संबन्धी विजिगीषु के कष्ट-नाशक होने से भी इसे "दुर्ग" कहते हैं |शा शुक' विहान ने कहा है कि जिसके समीप प्राप्त होकर शत्र दु:खी होवे हैं जो संकट पड़ने पर अपने स्वामी की रक्षा करता है, उसे 'दुर्ग' कहते हैं जिस प्रकार दत-शुन्य सर्प, मद-शून्य हामी वश कर लिम आता है, उसी प्रकार दुर्ग-रान्य राजा भो शत्रुओं द्वारा हमला करके परा कर लिया जाता है ॥२॥ जो दुर्ग देश के मध्य की सीमामों पर मनाया जाता है उसकी निशान लोग प्रशंसा करते है। परन्तु देश के मान्त भाग में पना हुमा दुर्गा नही कहा जाता, क्योंकि यह मनुष्यों द्वारा पूर्णरूप से सावित नहीं होता |शा प्रर्ष:-गुग दो तरह के होते हैं-१) स्वाभाविक () माहा। सामाविक दुर्ग-स्वयं उत्पन्न हुए, युखोपयोगी प शत्रुओं द्वारा माक्रमण करने के प्रयोग पर्व-साई धादि विकट स्थानों को स्वाभाविक दुर्ग कहते हैं। अर्मशास्त्र येचा विद्वान् चाणक्य ने इसके चार भेद निरूपण किये है। (१) प्रौर-आमदुर्ग, (२)पार्वत-पर्वतदुर्ग, (३) धान्यन (४) वनदुर्ग-स्वमदुर्ग। बाल दुर्गल बायो दुःखमाप्नुयुः । स्वामिमं रणवत्र बसने दुर्गमेव स ॥ पोंगामागो नवयुवः । दुर्गव रहितो राजा वा गम्पो मोरियो । देखगर्ने मार्ग दुर्ग' सलले । ऐसमान्तगतं दुर्गन सर्व पितो बनैः ॥३ मामा- ला मिनापदमोदर प्रस्तर गुर्वा का पाव, निरुवासम्बनिस्विंग पाल्प, नामदुर्ग । कौटिलीय अर्थशास्त्र प्र. १, स्त्र । दीपूर्ण जनपदारला नदुर्गमम्मोलान', भापत्रपसारो पा । नेटिक अर्थ ॥ प्र. .---. .
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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