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________________ ३८० नीविवाक्यामृत ... . .. लगा सकते हैं इसे 'प्रात्मोपसन्धान नाम की सामनीति कहते हैं ॥७२॥ जहां पर विजिगीषु शत्र, से पपनी प्रचुर सम्पत्ति के संरक्षणार्थ उसे थोडासा धन देकर प्रसन्न कर लेता है इसे 'उपप्रदान' (दान) नीति कहते हैं ७३ शुक्र 'ने भो शत्र से प्रचुर धन की रक्षार्थ उसे थोड़ा सा धन देकर प्रसन्न करने को 'उपप्रदान' कहा है ॥ विजिगीषु अपने सैन्यनायक, तोषण व अन्य गुप्तचर तथा दोनों तरफसे घेतन पाने वाले गुप्तचरों द्वारा शत्रुकी सेनामें परस्पर एक दूसरे के प्रति सन्देह वा तिरस्कार उत्पन्न कराकर भेद (फूट) डालने को भेद नीति कहा है ॥४॥ गुरु' ने भी उक्त उपायद्वारा शत्रु सेना में परस्पर भेद डालने को 'भेदनीति' कहा है। शत्र का वध करना, उसे माखत करना या उसके धन का अपहरण करना दंडनीति है ||७५३ अमिनि' विद्वान ने भी दंडनीति की इसी प्रकार व्याख्या की है ॥१॥ शत्र के पास से आये हुए मनुष्य की सूक्ष्म बुद्धि से परीक्षा करने के उपरान्ट ही विश्वस्त सिद्ध होने पर उसका अनुप्रह करना चाहिये,भपरीक्षित का नहीं ||६|| भागुरि ने भी शत्रु के यही से पाये हुप व्यक्ति की परीक्षा करने के बारे में संकेत किया है ॥ क्या अंगल में उत्पन्न हुई ओषधि शारीरिक आरोग्यता के लिये नहीं होती? अवश्य होती है उसी प्रकार शत्र के यहां से माया हुश्रा व्यक्ति भी कराण कारक हो सकता है ॥७॥ गुरू ने भी कहा है कि जिस प्रकार शरीरवर्ती व्याधि पोडाजनक और जंगल में पैदा होनेवाली भौषधि हितकारक होती है उसी प्रकार अहित-चिन्तक बन्धु भी शत्र व हितचिन्तक शत्रु भी बन्धु माना जावा है। १५ जिस प्रकार गृह में प्रविष्ट हुआ कबूतर उसे ऊजह बना देता है, उसी प्रकार शत्र पलका छोटा सा भी व्यक्ति विजिगीष के सत्र (सैन्य) को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है ।। वादनारायण ने भी शत्रु दलके साधारण व्यक्तिका गृहप्रवेश राजतन्त्रका नाशक बताया हो। उत्तम लाम, भूमि-लाम की श्रेष्ठता, मैत्री भाव को प्राप्त हुए शश्रुके प्रति कत्तय, जिगीषु की निशा का कारण, शत्रु चेष्टा जानने का उपाय, शत्र, निपह के उपरान्त विजिगीषु का कर्तप, प्रतिद्वन्दी के विश्वास के साधन य शत्र पर चढ़ाई न करने का अवसर मित्रहिरण्यभूमिलाभानामुत्तरोत्तरलाभः श्रेयान् ॥७९॥ हिरण्यं भूमिलाभाद्भवति मित्रं च । तथा च का स्वामितन मद राजोः प्ररपते | परप्रसादन पत्र प्रोक्तं तस विचः ॥ १॥ तथा गुरु-सैम्प विष तथा गुप्ताः पुरुषाः सेवकारमकाः। तेश्च भेदः प्रकर्तव्यो मिथ: सैन्यस्य भूपतः ॥ १ ॥ पाच मिनि:-वधस्त क्रियते पत्र परिक्लेशोऽया रिणः । अर्थस्य प्राण भूरिदण्डः स परिकीर्तितः ॥ ॥ । तथा च भागुरिः-शत्रो: सकारातः पास सेवार्थ शिष्टसम्मत । परीक्षा तस्य कृत्याय प्रसादः क्रियते ततः ॥ १॥ १ तथा शका-पोऽपि हितवान् बन्धुरप्यहितः परः । अहियो देहलो व्याधिर्हितमारण्यमौषधं ॥ ३ ॥ तपा च भादरायणः-शत्रुपक्षभधो लोकः स्तोकोऽपि गृहमावि शेत् । यदा तदा समापते तगृहप कपोसवत् ॥1॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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