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________________ ३८१ हिरण्यलाभादिति ||८०|| शत्रोमित्रत्वकारणं विमृश्य तथाचरेद्यथा न वञ्च्यते ॥ ८१ ॥ गृढोपायेन सिद्धकार्यस्यासंवित्ति करणं सर्वा शकी दुवादी च करोति ॥ ८२ ॥ गृहीतपुत्रदारानुभययेतनान् कुर्यात् ॥ ८३ ॥ शत्रु मपकृत्य भूदानेन तद्दायादानात्मनः सफलयेत् क्लेशयेद्वा ॥ ८४ ॥ परविश्वासजनने सत्यं शपथ प्रतिभूः प्रधानपुरुपपरिग्रहो बा हेतुः ॥ ८५ ॥ सहस्र कीयः पुरस्ताल्लाभः शतैकीयः पश्चात्कोप इति न यायात्॥ ८६ ॥ सूचीमुखा न भवन्त्यल्पेनापि सूचीमुखेन महान् दोरकः प्रविशति || ७ || व्यवहार समुद्देश 11-444*** and अर्थ-मित्र, सुत्र व भूमि-लाभ इन लाभों में उत्तरोत्तर- आगे आगे की वस्तु का लाभ कल्याण कारक है अर्थात्-मित्र की प्राप्ति है व उसको अपेक्षा सुर को पूर्व सुत्रर्ण प्राप्ति की अपेक्षा भूमि की प्राप्ति है, अतः विजिगीषु को भूमिकी प्राप्ति करनी चाहिये ||१|| - बनाया है ||१|| गगं' ने भी मित्र लाभ से स्वर्णलाभ व स्वर्ण लाभ से भूमिलाभ का सर्वत्र क्योंकि भूमि की प्राप्ति से सुवर्ण प्राप्ति व सुत्र प्राप्ति से मित्रप्राप्ति होती है शुक्र" " ने को शरदन ( दरिद्र) राजा को भूमि व मित्रका अभाव और कोशयुक को उक्त दोनोंकी प्राप्ति बताई है ॥ ५ ॥ ॥ ५० ॥ विवेकी पुरुष शत्रु की मित्रता का कारण सोच समझकर उससे ऐसा व्यवहार करे, जिससे कि वह उसके द्वारा उगाया न जा सके ॥८१॥ शुक्र ने कहा है कि बिना विचारे शत्रु से मित्रता करनेवाला निस्सन्देह उससे उगाया जाता है संधि को प्राप्त हुए जिस शत्रु राजा द्वारा गुप्त रीति से विजिगीषु का प्रयोजन सिद्ध किया गया है उसका यदि यह उचित सन्मानादि नहीं करता तब उसके मनमें इसके प्रति अनेक प्रकार की आशंकाएँ उत्पन्न होती हैं। अर्थात् यह ऐसी श्राशा करता है कि मेरे द्वारा उपकृत यह विजिगेषु पहिले तो मुझ से अनुकूल हुआ मेरा उचित सम्मान करता था, परन्तु मात्र मुझसे प्रतिकूल रहता है, इससे मलम होता है कि इसकी मेरे शत्रु मे मैत्री हो चुकी है इत्यादि । एवं जनता में इस प्रकारकी निन्द्राका पात्र होता A इसके पश्चात् मु० म० पुस्तक में स्वयम सायश्चेत् भूमिरियला मायालं भवति तदा मित्र गरीयः ॥ १ ॥ सहानुयापि मित्र स्वयं का स्वास्तु भूमिमित्राभ्यां हिरवं गरीयः २ ॥ यह विशेष पाठ है, जिसका अर्थ यह है कि सहायक से दोन राजा पृथिबी व स्वयं की प्राप्ति करने में असमर्थ होता है। अतः उक्त दोनों लाभों मित्रका लाभ श्रेष्ठ है सदा साथ देने वाला मित्र वा स्वयं स्थिरशील भूमि की प्राप्ति इव्याधीन है, अतः भूमि व मित्र-लाभ मे सुवर्ण लाभ श्रेष्ट है ॥ १.२ ॥ १ तथा गर्ग- उत्तमो मित्रलाभस्तु हेमलाभस्ततो यरः । तस्माच्छ्रेष्ठतरं चैव भूमिलाभं समाश्रयेत् ॥ १ २ तथाच शुक्रः न भूमिर्न च मिश्राणि कोशनष्टस्य सूपतेः । द्वितीयं तद्धरेत्पयो यदि कोशो भवेद्गृहे ॥ १॥ ३ तथा शुक्र पर्यालोचं विना कुर्यायो मैत्री रिपुणा सह । सबंचनामा नोति तस्य पार्श्वदमंशयः ॥ १ ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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