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________________ काजी तिवाक्यामृत * .4mmun. विशेष लाभदायक नहीं है। प्राशय यह है कि यद्यपि पहाइकी जमीनको जोतनेसे अतिवृष्टि आदि उपद्रवों के अभावमें धाम्यकी उत्पत्ति होसकती है तथापि पके हुए खेतको काटफर उसके फल खाना उत्तम है उसीप्रकार गृहस्थ श्रावकको धर्मरूपीक्षके फलस्वरूप काम और अर्थके साथ धर्मका सेवन करना उचित है। रेय विद्वान् भी लिखता है कि 'काम और अर्थके साथ धर्मका सेवन करनेसे मनुष्यको लश नहीं होता । अतएष सुखाभिलाषी पुरुषको काम और अर्थसे सहित ही धर्मका सेवन करना चाहिये ॥१॥ प्राचार्य वादीभसिंहने भी लिखा है कि परस्परकी बाधारहित धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थों को सेवन किया जाये तो बाधारहित स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा अनुक्रमसे मोक्ष भी प्राप्त होता है ।।१।। निष्कर्षः नैतिक पुरुष काम और अर्थ के साथ धर्मका सेवन करे ॥ ४६॥ अब बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्यनिर्देश करते हैं: __स खलु सुधी योऽमुत्र सुखाविरोधेन सुखमनुभवति ॥ ४७ ॥ अर्थ:-निश्चयसे यही मनुष्य बुद्धिमान है जो पारलौकिक' सुख का घात न करता हुआ सुखोंका अनुभव करता है-न्यायप्राप्त भोगोंको भोगता है। भावार्थ:-परस्त्रीसेवन और मद्यपान आदि दुष्कृत्य पारलौकिक स्वर्गसंबंधी सुखके घातक है, इस लिये उनको छोड़कर जो व्यक्ति न्यायप्राप्त सुख-स्वस्त्रीसंतोष और पात्रदान आदि करता है वही युद्धिमान है। वर्ग" नामके विद्वामने कहा है कि 'बुद्धिमान पुरुषको कौल और नास्तिकों के द्वारा कहहुये धर्म(मद्यपान, मांसभक्षण और परस्त्रीसेवन-प्रादि ) में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस धर्माभास (नाममात्रका धर्म ) से निश्चयसे नरकगसिके भयङ्कर दुःख होते हैं ।। १ ।।' अब अभ्यायके सुखलेशसे होनेवाली हानि यताते हैं: इदमिह परमाश्चर्य यदन्यायसुखलवादिहामुत्रचानवधिदु:खानुबन्धः ॥ ४८ ।। १ तथा च रैम्यःकामार्थसहिसो धमों न क्लेशाय मजायते । तस्माचाभ्यां समेतस्तु कार्यएव सुस्वार्थिमिः ।१।। २ तथा च चादीभसिंह:-- परस्परविरोधेन त्रिदोयदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपत्रोंऽप्यनुक्रमात् | 111 ३ 'सुखी' ऐसा मु० मू० पु. में पाठ है, जिपका अर्थ:---वही मनुष्य सुखी है। ४ तथा च वर्म: सेवनाअख्य धर्मस्य नरकं प्राप्यते ध्वं । घीमता तन्न कर्तव्यं कौलनास्तिककीर्तितम् ॥१॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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