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________________ दिवसानुष्ठान समुरेश ३३ मनुष्यको अपने हितेपी पुरुषों द्वारा अपरीक्षित के स्थानमें न प्रविष्ट होना चाहिये और न जाना पारिये, क्योंकि उपद्रव-युक्त स्थान में जाने से संकटोंका सामना करना पड़ता है | इसीप्रकार अपने विश्वासपात्र व हितेषी पुरुषों द्वारा बिना सपारी किये हुए पोड़े व रब-मादि वाहनों पर सबारी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ ___ मनुष्य ऐसे सालार-धादि जलाशय, व्यापारी व तपस्वी के पास न जाबे, जो कि उसके भात पुरुषों द्वारा परीक्षित न हो ॥८३ । राजाको पुलिस द्वारा संशोधन न किये हुए मार्गपर नहीं बनना चाहिये, क्योंकि सापित मागमें कोई खतरा नहीं रहता ।,८४|| विषकी पुरुष विष को दूर करनवालो औषिक । मणिकी अशा भर भी उपासना न करे । इमीप्रकार हर उतारने की विद्या का अभ्यास करे, परन्तु उसे कंठस्थ न करे । ८६॥ गजाको मंत्री, बैंप व ज्योतिषी के बिना कभी भी दूसरी जगह प्रस्थान नहीं करना चारिये ||२७|राजा या विवेकी पुरुषका कर्तव्य है कि वह अपनी भोजन साममो को भषय करने से पूर्व भाग्नमें डालकर परीषा करने और पावखने कि कहीं अग्नि में से नीले रंगकी लपटें न निकलने लगी हो, अगर ऐमा हो, सो समझ लेना चाहिये, कि यह सामग्री जहर मिश्रित - भक्षणके भयोग्य है। इसीप्रकार पत्रादिक की जांच भी अपने अन्न पुरुषों से कराते रहना चाहिये, ताकि उसको सदैव इन विघ्नबाधाओं से रक्षा हो ॥८॥ मनुष्यको समृप्तिद्धि के योग सदा समस्त कार्य करना चाहिये, इससे कार्य-सिद्धि होती है । जब दक्षिण दिशा की भोर अनुकल बायुका संचार हो रहा हो, उस समय मनुष्यको भोजन मैथुन व युद्ध में प्रवृत्ति करनी चाहिये, ऐसा करने से उसे सक्त कार्यों में सफलता मिलती है 10 वर से अनुराग करनेवाला अथवा दूसरे को अपने समान समझनेवाला व्यक्ति किसीका रेप-पात्र नहीं होता ॥३१॥ मन, सेवक, शकुन वायुकी अनुकूलता भविष्य में किये जानेवाले कार्यकी सफलवा केशाएक चिन्ह है। अर्थात-हदय प्रफुल्लित होना, सेवकोंका प्रसन्न रहना व दाहिनी आंख फाकना-मादि शुभ शकुन इस बात के प्रतीक है, कि भविष्य में उस मनुष्यको सफलता मिलेगी ॥२॥ अकेला व्यक्ति दिन । रात्रि में गमन न करे ॥३॥ मनध्यको अपना मन, बचन व शरीर काबू में रखते हुव-जिवविध होकर प्रस्थान करना चाहिये ॥४॥ प्रयेक व्यक्ति दिनमें सुबह दुपहर और शाम-सीनों संध्यामों में नपत्र देखने तक रिवर सपासना करे ॥३५राजाणे ध्यान में स्थित होकर निम्न प्रकार के मंत्रका जाप करना चाहिये कि 'मैं इस प्रविधी रूपी गायकी रक्षा करता हूँ, जिसके चार समुद्र ही धन है, धर्म (शिव-पालन व दुष्टनिप्रह) ही जिसका पछाहै, जो उत्साह रूप धमाली है, वर्ण (मामा-मावि बचानम (माचार-पादि) ही जिसके सुर है जो काम और अर्थ र कानों वाली, नय व प्रताप ही जिसके मांग है जो सस्वर शोर रूप नेत्रों से युक्त हैं एवं जो म्याच रूप मुख से एक है। . इसप्रकार की मेरी पृथिवी कपी गाव का ओ अपराब करे (ो इसपर भाकमय-मादि करेगा) से मैं ममसे भी सदन महीगा
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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