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________________ नीतिवाक्यामृत MNIMHAMMIMHARIRIPAHILIA Reap गुरु 'विद्वामने भी कहा है कि 'जो राजा धनके लोभसे हीनाधिक-फमती-बढ़ती-जुर्माना करता सके राज्यकी वृद्धि नहीं होती और इसके परिणामस्वरूप उसका राज्य नष्ट होजाता है ॥१॥' निक:-राजाको प्रजा-कएटकों-दुओं से राष्ट्र को सुरक्षित रखनेके लिये अपराधियोंको सोसवेना चाहिये, धनादिके लोभसे नहीं ॥३॥ जय विद्रान्वेषी वैप और राजाकी कड़ी आलोचना सकिं राजा वैद्यो वा य: स्वजीवनाय प्रजासु दोषमन्वेषयति ॥४॥ वर्ष-जो राजा अपने निर्वाहके लिये प्रजाजोंमें दोषों-अपराधों का अन्वेषण करता है-धनके नये साधारण अपराधोंमें भी अधिक जुर्माना-आदि करता है, वह राजा नहीं किन्तु प्रजाका शत्र है। प अपने निर्वाहके लिये जनताके रोगोंका अन्वेषण करता है-रोगोंको बढ़ाने पौषधियों देता है-वह वैध नहीं किन्तु शत्रु है ॥४॥ * नाम विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा दूसरोंके कहने से प्रजाको दण्ड देता है उसका सपनाह होजाता है, इसलिये उसको सोच-समझ कर दंड देना चाहिये ॥१॥ राजाको सैनिक शक्तिका संगठन प्रजामें अपराधोंका अन्वेषण करने के अभिप्राय से नहीं करना SE बोंकि ऐसा करनेसे प्रजा उससे असन्तुष्ट होकर शत्रुता करने लगती है और इसके साप सका राज्य नष्ट होजाता है ॥२॥ के सारा बनाम–उपयोगमें न आने योग्य-धनः-- 4 दंड-बूत-मृत-विस्मृत-चौर-पारदारिक-प्रजाविप्लवजानि द्रव्याणि न राजा स्वप. अधः-राजाको अपराधियोंके जुर्मानेसे आए हुए, जुप्रामें जीते हुए,लडाईमें मारे हुए, नवी, वाताव रावा प्रादिमें मनुष्योंके द्वारा भूले हुए धनका और धोरोंके घनका नया पति-पुत्रादि अटुम्दीसे रहित सावित्रीका धन या रक्षकहीन कन्याका धन और गदर बगैरह के कारण जनताके द्वारा टेक मतोमा उपमग महीं करना चाहिये।। " भावार्थ:-क्त प्रकारके धनको राजा स्वयं उपभोग न करे, परन्तु उसे लेकर उसका समाज और पर युग-यो राजा धनशोमेन ीनाधिकारभियः । तस्य राष्ट्र जेम्नाशं न स्यात् परमवृद्धिमत् || ॥ एक-पो राजा परवाक्येन सजाड प्रयच्छति। तस्य राम:म माति तस्मामास्वा प्रदए येत् ।। विदान्वेषणाशिनेन नृपस्तंभ न पोषयेत् । तस्य तम्नाशमन्येति तस्मात्य नारिता - सहस्सोक का नु जरा हमले संशोषित सयं परिवर्तित किया है। पोंकि संरी पुस्तक में अगर सलामा सम्पादक
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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