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________________ स्वामी समुद्देश २५१ ---------- स दाता महान् यस्य नास्ति प्रत्याशोपहतं चेतः * ॥ ६ ॥ प्रत्युपकतु रूपकारः सष्टद्धिकोऽर्थन्यास इव तज्जन्मान्तरेषु च न केपामृणं येषामप्रत्युपकारमनुभवनम् ॥१०॥ किं तया गवा या न चरति चीरं न गर्भिणी वा ॥ ११ ॥ किं तेन स्वामि प्रसादेन यो न पूरयत्याशाम् || १२ || अर्थ- जो धन या अभिलषित वस्तु देकर दूसरोंकी भलाई करता है, वही उदार पुरुष लोगोंका प्यारा होता है ॥ ६ ॥ त्रिविद्वान् ने भी कहा है कि 'जो मनुष्य अपना धन देता है, वह चाण्डाल, पापी, समाज-वहिकृत व निदेबी होनेपर भी जनताका प्रेमपात्र होता है ॥ १ ॥' संसार में वही दावा श्रेष्ठ है, जिसका मन पात्र ( याचक) से प्रत्युपकार या धनादिक लाभकी इच्छा से दूषित नहीं है; क्योंकि प्रत्युपकारकी इच्छा से पात्रदान करना वणिक वृत्ति ही है । सारांश यह है कि आत्महितैषी उद्दार पुरुष प्रत्युपकारकी कामना शून्य होकर दान धर्ममें प्रवृत्ति करे ॥ ६ ॥ कहीं प्रत्युपकार न कर देवे । ३ तथा च प्रत्रिः--अन्त्योऽपि ऋषिविज्ञाने भी कहा है कि 'जो व्यक्ति लोकमें दान देकर याच कसे मनादि चाहता है, उसका दान व्यर्थ है ॥ १ ॥ प्रत्युपकार करनेवालेका उपकार बढ़नेवाली धरोहर समान है। सारांश यह है कि यद्यपि विश्वासपात्र शिष्ट पुरुषके यहाँ रक्खी हुई धरोहर ( सुवों आदि बढ़ती नहीं है, केवल रखनेवालेको जैसी को तैसी वापिस मिल जाती है परन्तु प्रत्युपकारीके साथ किया हुआ उपकार (अर्थ-दानादि) उपकारीको विशेष फलदायक होनेसे - उसके बदले विशेष धनादि-लाभ होनेके कारण बदनेवाली धरोहर के समान समझना चाहिये; अतः प्रत्युपकारीका उपकार विशेष लाभप्रद है। इसीप्रकार जो लोग बिना प्रत्युप * इयमुच्चभियानीकिको महतो कापि कठोरता (च), मपकृत्य भवन्ति निः स्पृहाः परतः प्रस्युपकार मोहवश्च, इसमक्कारका जक्त सूजके पश्चाद मू० अपियोंमें अधिक शह है, जिसका अर्थ यह है कि उच्च शानबान्, महापुरुषोंकी ऐसी कोई विष्ठकृति (स्वभाव) और चित्र-पूति होती है, जिससे में दूसरोंका उपकार करके उनसे निःस्पृहः- कुछ मत न रखनेवाले होते हैं एवं उन्हें इस का भय रहता है कि उपकृत पुरुष मेरा पापोऽपि लोकोऽपि निर्दमः । लोकानां वलभः सोऽत्र यो ददाति निजं धनम् ||१ वेद ॥२ २ तथा च ऋषिपुत्रकः -- दादा पुरुषोत्र तस्मालानं भवाम्कृति | मरहीतुः सकाशाच्या
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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