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________________ २५२ नीतिवाक्यामृत 100007 ******** कार किये ही परोपकारका उपभोग करते हैं वे जन्मान्तरमें किन उपकारियों दाताओंके ऋणी नहीं होते ? सीके होते हैं। निष्कर्ष यह है कि शिष्ट पुरुषको कृतज्ञता - प्रकाश-पूर्वक उपकारीका प्रत्युपकार करना चाहिये ॥ १० ॥ ऋषिपुत्रक विद्वान्ले भी इसीप्रकार कहा है ।। १ । उस गायसे क्या लाभ है, जो कि दूध नहीं देती और न गर्भवती है ? कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उस मनुष्य के उपकार करनेसे क्या लाभ है, जोकि वर्तमान या भविष्य में प्रत्युकार नहीं कर सकता ? कोई लाभ नहीं ॥ ११ ॥ उस स्वामीकी प्रसन्नवासे क्या लाभ है, जो कि सेवकोंके न्याय-युक्त मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकता ? कोई लाभ नहीं। क्योंकि सेवकों के मनोरथ पूर्ण करनाही स्वामी प्रसादका फल है ॥ १२ ॥ - अधिकारी-युक्त राजा, कृतघ्नता, मूर्खता, लोभ, भालस्यसे हानिक्षुद्रपरिषत्कः : सर्पाश्रय इव न कस्यापि सेव्यः ।। १३ ।। अकृतज्ञस्य व्यसनेषु न सहन्ते सहायाः || १४ || अविशेषज्ञो विशिष्ट नीयते ॥ १५ ॥ आत्मम्भरिः परित्यज्यते कलत्रेणापि ||१६|| अनुत्साहः सर्वेव्यसनानामागमनद्वारम् ॥ १७ ॥ अर्थ — जिसकी सभा में श्रमात्य आदि प्रकृति दुष्ट होती है, वह राजा सर्प-युक्त गृह समान महाभयङ्कर होता है, इसलिये वह किसीके द्वारा सेवन करने के योग्य नहीं ॥ १३ ॥ गुरु विद्वान ने कहा है कि 'यदि राजा इस समान शुद्धचित्त व सौम्य प्रकृति-युक्त भी हो, परन्तु यदि वह गृद्ध पहियों की तरह दुष्ट और घातक मंत्री आदि सभासदों से युक्त है, तो सपें-युक्त गृह समान अजा द्वारा सेवन करने योग्य महीं ॥ १ ॥ जो कृतघ्न है - दूसरों की भलाईको नहीं मानता, उसकी आपति कालमें सेवक लोग सहायता नहीं करते, अवयव प्रत्येक व्यक्तिको कृतज्ञ होना चाहिये || १४ || जैमिनि विज्ञानने भी कृतघ्नके विषय में इसी प्रकार कहा है ॥ १ ॥ मूर्ख पुरुष शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता ॥ १५ ॥ १ तथा च ऋषिपुत्रकः— उपकारं गृहीत्वा यः करोति पुरुषा । जन्मान्तरेषु तस्य वृद्धिं याति कुसीदवत् ॥ १ ॥ २ तथा गुरुः--ईसाकारोऽपि भेाजा गुप्राकारैः सभासदः प्रसेयः स्यात् स लोकस्थ ससर्प इव संयः ||१ ३ मा जैमिनिः 1:- प्रकृतस्य भूपस्य समे समुपस्थिते । साहाय्यं न करोत्येव करिचराप्तोऽपि मानवः ॥ १०
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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