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________________ १६ र नीतिवाक्यामृत * PROmni. randu.. अनादर ) निदेयता, सृष्णावृद्धि और इन्द्रियों की इच्छानुकूल प्रवृत्तिको असंयम कहा है। निष्कर्ष :--बिवेकी पुरुषको उत्तप्रकार मिथ्यात्व, अमान और असंयमका त्यागकर, नैनिक कर्तव्य पालन करना चाहिये ।।२।। अब धर्मप्राप्ति के उपायोंको बताते हैं : श्रात्मवत् परत्र कृशलवृत्तिचिन्तनं शक्तितस्त्यागतपसो च धर्माधिगमोपायाः ॥३॥ - अर्थ :-अपने समान दूसरे प्राणियोंका हितचितवन करना, शक्तिपूर्वक पात्रोंको दान देना और शक्तिपूर्वक तपश्चर्या (समस्त इन्द्रियों तथा मनकी लालसाको रोकना) करना ये धर्मप्रापिके उपाय हैइनके अनुष्ठान करनेसे विवेकी मनुष्यका जीवन श्रादशं और धामिक होजाता है ॥३॥ नीतिकार शुक्रने लिखा है कि विवेकी मनुष्यको अपने धनके अनुसार दान करना चाहिये जिससे उसके कुटुम्बको पीडा न होने पावे ॥१॥ जो मूर्ख मनुष्य कुटुम्बको पीड़ा पहुँचाकर शक्तिसे बाहर दान करता है उसे धर्म नहीं कहा जाम. कता किन्तु वह पाप है; क्योंकि उससे दान करने वालेको अपना दंश छोड़ना पड़ता है ।।२।। यथाशक्ति तप करनेके विषय में गुरु नामका विद्वान् लिखता है कि 'जो मनुष्य अपने शरीरको कष्ट पहुंचाकर व्रतोंका पालन करता है उसकी आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती इसलिये उसे श्रास्मसम्तोषके अनुकूल सपश्चर्या करनी चाहिये ॥३॥ १ अबतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमातृभता । इन्द्रियेच्छानुबनित्य सन्तः प्राहुरसयमम् ॥१॥ -यशस्तिलक श्रा०६। उक्तं च यतः शुक्रण : २-आत्मवित्तानुसारेण त्याग: कार्यों विवकिना। तेन येन नो पीडा कुटुम्बस्य प्रजायते ॥१॥ कुटुम्ब पोयित्वा तु यो धर्म कुरुते कुधीः । मधमो हि पापं तद्देशत्याय केवलं || ३-तथा च गुरु : -शरीरं पौयित्वा तु यो प्रतानि समाचरेत् । न तस्य प्रीयते चात्मा तत्तुष्यातप आचरेत् ॥११॥ - --
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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