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________________ युद्ध समुद्देश चरणेपु पतित भीतमशस्त्रं च हिंसन् ब्रह्महा भरति ॥७५ ।। संग्रामधृतेषु यायिषु सत्कृत्य विसर्गः ॥ ७६ ॥ स्थायिषु संसर्ग: सेनापत्यायत्तः ॥७७॥ अर्थ-समान शक्ति छानों का परस्पर युद्ध होने से दोनों का मरण निश्चित और विजय प्राप्ति सैविग्ध रहती है, क्योंकि बाद कच्चे घड़े परस्पर एक दुसरे से ताड़ित किये जावें तो दोनों नष्ट हो भामुरि'ने भी उक्त दृष्टान्त देते हुए तुल्य बलवानों को युद्ध करने का निषेध किया है ।। १ ।। जिस प्रकार पदाति (पैदल ) सैनिक हाथी के साथ युद्ध करने से नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार होन-शक्ति याला विजिगीषु भी अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु के साथ युद्ध करने से न हो जाता है ।।६६॥ भारद्वाज ने भी सक्त दृष्टान्त द्वारा उक्त बात की पुष्टि की है ॥१॥ जो राजा प्रजा पर नियत किये हुए टेक्स से ही सन्तुष्ट होकर उसके प्राण धन व मान की रक्षा करता हुश्रा अन्याय प्रवृत्ति नहीं करता-उसके प्राण व धनादि नष्ट नहीं करता, उसे 'धर्म विजयी और ओ सिर्फ धन से हो प्रम रखकर प्रजा के प्राण और मान मर्यादा की रक्षाधं उसके साथ अन्यायपणे वर्ताव नहीं करता बसे 'लोभ विजयी एवं जो प्रजाके प्राणा, धन और सम्मानका नाश पूर्वक शत्रु का वध करके उसकी भूमि चाहता है उसे 'असुर विजयी' कहत है ।। ७०-७२ ॥ शुकने भी उक्त धर्मविजयो-श्रादि राजाओं के विषय में इसी प्रकार कहा है ।।१-३॥ जिस प्रकार चाएठाम-गृह में प्रविष्ट हुए हिरण का वध होता है, उसी प्रकार असुरविजयी सजा के आश्रय से भी प्रजा का नाश होता है ।। ७३ ।। शुक्र'ने भो प्रमुरविजयो के मामय से प्रमा की मृत्यु बताई है ॥ १ ॥ विजिगोषु जैया-वैसा-दुल व कोश-हीन क्यों न हो परन्तु यदि वह उत्तम ऋतव्य-परायण व वीर पुरुषों के समिधान से युक्त है तो इसे सच की अपेक्षा बलिष्ठ समझना चाहिये । ५४ ।। नारद ने भी वोर पुरुषों से युक्त विजिगीषु को शक्तिशाली बताया है।॥१॥ जो व्यक्ति संग्राम भूमि में अपने पैरों पर पड़े हुए, भयभीत व शस्त्र-हीन ( निहत्थे ) रात्र का इत्या करता है, वह ब्रह्मघाती है || ७५ ॥ • .. .. - -.- --- तथा व भारि:-समेनापि न योडायमित्युवाच वृस्पतिः । अन्योन्याइसिना भंगो घटाभ्यां जायते यत: ॥1॥ तथा च भारद्वाज:-इस्तिमा सह संग्रामः पातीनां जयावहः । तथा बलवतानन दुर्बलस्पच्यावहः ॥ तथा च राक:-प्राणविताभिमानेष पो राजा म त प्रजाः । सधर्मविजयी बोके यथा खोमेन कोशमा 11111 प्रायोषु गाभिमानेषु यो जनेषु प्रवर्तते । स जामस्जियी प्रोतोय स्थानव तुष्यति ॥ अर्थमानोपान को महीं पाते नृपः । देवारिविजयो प्रोक्तो भूलोकेश विन्यौः ॥३. ४ तथा • शुकः.. असुरविजयिनं भूपं संभपेनन्मतिर्मितः । स भून मत्युमाप्नोति सून माय मृगो यथा ।। १ तथा च मारद:- राज्य दुर्वलो वापि स्थायी स्याद सावत्तरः । सकाशाचापिनश्चेत स्थात् सुमद्धः मुबारकः ||
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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