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* नीतिवाक्यामृत *
निष्कर्षः-कृपण लोग सम्पत्ति प्राप्त करके भी अपनी प्रियतमा ( स्त्री) के स्पर्श, उसके सुन्दर रुपका अवलोकन और मिष्ठान्नका आस्वाद आदिसे बंचित रहते हैं, क्योंकि ये बहुधा धनको पृथ्वीमें गाइ देते हैं, अतः वे लोग अपनी इन्द्रियाँ और मनको प्रसन्न करने में असमर्थ है, इसलिये उनकी सम्पत्ति निष्फल है।
ज्यास' नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जो धन पंचेन्द्रियोंके विषयों का सुख उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है वह ( कृपणोंका धन ) नपुसफोंके यौवनकी तरह निष्फल है। अर्थात जिसप्रकार नपुंसक व्यक्ति जयानीको पाकर, प्रियतमाके उपभोगसे वंचित रहता है अतएव उसकी जवानी-युवावस्था पाना। निरर्थक है, उसी प्रकार कृपणों का धन भी सांसारिक सुखोंका उत्पादक न होनेसे निरर्थक है ॥१॥
पारायण' नामके विद्वानने लिखा है कि 'जो व्यक्ति धनाढ्य होकर दूसरों की नौकरी प्रादि करके। मानसिक कष्ट उठाता है उसका धन ऊपर जमीन को घर्षण करनेकी तरह निष्फल है ।।१॥' अब इन्द्रियोंको फायूमें न करनेवालोंकी हानि बताते हैं:
नाजितेन्द्रियाणां काऽपि कार्यसिद्धिरस्ति ॥ ७॥ अर्थ-जिनकी इन्द्रियाँ वश (कावू ) में नहीं है उन्हें किसी भी कार्यमें थोड़ी भी सफलता नहीं मिलती-उनके कोई भी सत्कार्य सिद्ध नहीं होसकते ।
___ भावार्थ:-जो व्यक्ति श्रोत्रेन्द्रियको प्रिय संगीतके सुननेका इच्छुक है वह उसके सुनने में अपना सारा समय लगा देता है इसलिए अपने धार्मिक और आर्थिक ( जोविका संबंधी) श्रादि आवश्यक कार्योंमें विलम्ब कर देता है, इसी कारण वह अपने कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । इसीप्रकार अपनी प्रियाओंके आलिंगनके इच्छुक या लावण्यवती ललनाओंके देखनेके इच्छुक तथा मिष्ठान स्वादके लोलुपी व्यक्ति भी उन्हीं में पासक्त होनेके कारण दूसरे भाषश्यकीय कार्यों में बिलम्म करते हैं, अतएव उनके सत्कार्य सफल नहीं हो पाते।
शुक्र' नामके विद्वानने लिखा है कि यदि मनुष्य उत्तम फलवाले कार्यको शीघ्रतासे न कर उसमें बिलम्ब कर देषे तो समय उस कार्यके फलको पी लेता है अर्थात् फिर यह कार्य सफल नहीं हो पाता : १॥
तथा च न्यास:यद्धन विषयाणां च नैवल्दारकरं परम् । तत्तयां निष्फल ज्ञेयं दानामिव यौवनम् ॥१॥ २ तमा च चारायणःसेवादिभिः परिक्लेशे विद्यमानधनोऽपि यः। सन्ताय मनसः कुर्यात्ततस्योपरकर्षणम् ॥१॥ तथा च शुक्र:यस्य तस्य च कार्यस्य सफलस्य विशेषतः । क्षिप्रमविमागस्य काल: पिबति तत्फलम् ॥ १ ॥