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________________ नीतिवाक्यामृत . ............ ... ....buali " मधिकृत्यसंस्कारसाराहितोपयोगाच्च शरीरस्य रमणीयत्वं न पुनः स्वभाव:B |॥६०॥ भक्तिविश्रम्भादव्यभिचारिणं कुन्यं पुत्र वा संवर्धयेत् ॥११॥ विनियुजीत उचितेष कर्मसु ॥३२॥ अर्थ:-जिसप्रकार सांपको मीठा दूध पिलाने पर भी वह अपनी विषली प्रकृति नहीं छोड़सकता उसीप्रकार जिसकी जैसी प्रकृति होती है, उसे वह कदापि नहीं छोड़ सकता। सारांश यह है कि इसी तरह वेश्याए भी व्यभिचार-प्रकृतिका घणाम नहीं छोड़ सकता, इसलिये नैतिक विचारवान मनुष्यको शारी. रिक भयंकर बीमारियों (गर्मी-सुजाक आदि ) को उत्पन्न करनेवाली एवं धन, धर्म, प्राण व मानमर्यादा नष्ट करनेवाली वेश्याओंसे सदा दूर रहना चाहिये ॥५०॥ जब राजा अपने निकटवर्ती कुटुम्बीजनोंको उच्च अधिकारी पदों पर नियुक्त करके जीवनपर्यन्त प्रचुर धन-आदि देकर उनका संरक्षण करता है, तब वे अभिमान-वश राज्यलोभसे राजा के घातक हो बाते हैं ॥४॥ शुक' विद्वानने भी निकटवर्ती कुटुम्बीजनोंका संरत्रण गजाके विनाशका कारण बताया है ॥१॥ राजा द्वारा जब सजातीय कुटुम्बियोंके लिये सैन्य व कोश बढानेवाली जीविका दीजाती है, हब वे विकार-युक्त अभिमानी होजाते हैं, जिसका परिणाम महाभयंकर होता है- वे शक्ति सम्पन्न होकर अभिमान व राज्य-लोभ-वश राजाका वध-बंधनादि चिन्तवन करने लगते हैं, अतः उन्हें ऐसी जीविका न देनी चाहिये ॥५६॥ गुरु विद्वानने भी सजातीय फुटुम्पियों के लिये सेभ्य व कोश बढानेपाली जीविका देने का निषेध किया है ॥२॥ शरीर में कृत्रिम (बनावटी) सौन्दर्य होता है, न कि स्वाभाविक, क्योंकि युवावस्था को प्राप्त होकर उत्तम वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होने के कारण वह सुन्दर प्रतीत होता है ॥३०॥ राजाको अपने पर श्रद्धा (भक्ति) रखनेवाले, भक्ति के बहाने से कभी विरन होनेवाले नत्र, विश्वसनीय व मासकारी सजातीय कुटुम्बी व पत्रों का संरक्षण करते हुए उन्हें योग्ष पदों पर नियुक्त करना चाहिये ॥६१-६२ नारद 'पल्लामदेव ' विद्वानने भी इसीप्रकार कहा है ॥१॥ B-- रक्त सूत्र म. म. पुस्तक से संकलन किया गया है. टी. पू. में नहीं है। सवायकः-स्पाचा पोषण यच निपते मठपार्थिः।मात्मनाशाप तगोपं तस्मास्यास्य सुदूरतः||१॥ २ तथा - गुरु:-तिः कार्या , मुल्याचं यथा सैन्य विवर्धते । सैन्यपृढचा तु से नन्ति स्वामिन राज्यशोमतः || ३ मा मारकः--वर्धनीयोऽपि दायापः पुत्रो वा भक्तिभादि । न विकार करोति स्म शाला साइतका पर। ५ स्या व मलमदेवःस्थामदेव नियोजन भृत्या भाभरपामि । म बामविः गाये प्रमयामीति बव्य॥॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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