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________________ ॐनीतिधाक्यामृत * ४१ BIPI...... भयार बन भी प्रधान नगर होजाता है। सभी लोग उससे सजनताका व्यवहार करते हैं। व पपिपी उसे निधियों और रत्नोंसे परिपूर्ण मिलती है ॥ १॥ संसारी प्राणियोंको मनुध्यपर्याय, उच्चवंश, ऐश्वर्य, दीपोयु, निरोगीशरीर, सज्जनमित्र, सुयोग्य समामा-पतिम्रता स्त्री, तीर्थकरोंमें भक्ति, विद्वत्ता, सज्जनता, जितेन्द्रियता और पात्रों को दानदेना ये कारके सद्गुण (सुखसामग्री) पुण्यके बिना दुर्लभ हैं-जिसने पूर्वजन्म में पुरुषसंचय किया है उस गाली पुरुषको प्राप्त होते हैं ॥ २॥ यह धर्म धनाभिलाषियोंको धन, इञ्चित वस्तु चाहनेवालों को इच्छितयस्तु, सौभाग्यके इच्छुकोंको साम्य, पुत्राभिलाषियोंको पुत्र और राज्यको कामनाकरनेवालोंको राज्यश्री प्रदान करता है। अधिक क्या बावे संसारमें ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे यह वेनेमें समर्थ न हो, यह प्राणियोंको स्वगश्री और मुक्तिश्री भी देने में समर्थ है ॥शा 5. जैनधर्म, धनाविऐश्वर्य, सज्जनमहापुरुषोंकी सङ्गति, विद्वानोंकी गोष्ठी, वक्तृत्वकला, प्रशस्तकार्यपटुता, लोकेसटा सुन्दर पतित्रता स्त्री, गुरुजनोंके चरणकमलोंकी उपासना, शुद्धशील और निर्मलबुद्धि ये सब मसाममी भाग्यशाली पुरुषों को प्राप्त होती है ॥१।। भगवान जिनसेनाचार्य ने कहा है कि यह धर्म प्रात्माको समस्त दुःखोंसे छुड़ाकर शानावरणादि कर्मों मानुप्य यवंशजन्म विभवो दीर्घायुरारोग्यता । Hot अनि मुसुतं सती प्रियतमा भक्तिश्च तीर्थङ्करे ।। विद्वत्व सुजनस्वमिन्द्रियजयः सत्यामदाने रतिः । - पते पुण्यविना प्रयोदशगुणाः संसारिणां दुर्लभाः ॥२॥ धोऽयं धनवरुनमेषु धनदः कामाधिना कामदः । सौभाग्यार्थियु तम्प्रदः किमपरः पुत्रार्थिनां पत्रदः ॥ राज्यार्थियपि राज्यदः किमथवा नानाविकरूपणां । सर्वि न करोति किं च कुरुते स्वर्गापवर्गावपि ॥१॥ -संगहीत अनो धर्मः प्रगरविभव: संगतिः साधुलोके । विद्गोष्ठी वचनपटुता कोशल सक्रियाम् ।। सावी लक्ष्मी चरणकमलोपासना सद्गुरूणां । शुशील मति विमलता प्राप्यते भाग्यद्भिः ॥२१॥ -संगृहीत १ धर्मः पाति दुखेभ्यो धर्मः शर्म तनोत्ययं । दमों नेश्रेय मौख्यं दत्त कर्मक्षयोद्भवम् ।। धर्मादव सुरेन्द्रयं नरेन्द्रत्वं गणन्द्रता । पोतीर्थकरत्वं च परमानन्त्यमेव च ||२||
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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