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________________ निवान्यात के क्षयसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षमुखको उत्पन्न करता है। इसके माहात्म्यसे यह प्राणी देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर और तीर्थकरके ऐश्वर्यको प्राप्त करके पुनः अमृतपद-मोक्षपदको प्राप्त होता है ॥१-२॥ धर्म ही इस जीत्रका सचा बन्धु, मित्र और गुरु है। अतएव प्रत्येक प्राणीको स्वर्ग और मोक्ष देने वाले धार्मिक सत्कमोंके अनुधानमें अपनी बुद्धिको प्रेरित करनी चाहिये ।।३।। धर्मसे सुख मिलता है और अधर्मसे दुःख इसलिये विद्वान पुरुष दुःस्योंसे छूटनेकी इच्छासे धर्म में प्रवृत्ति करता है | जीवदया, सत्य, क्षमा, शौच, संतोप-(मूर्धाका त्याग) सम्यग्ज्ञान पोर वैराग्य ये धर्म हैं और इनके विपरीत हिंसा, झूठ, क्रोध, लोभ, मूर्छा, मिथ्याशान और मिथ्याचारित्र ये अधर्म हैं ।।१।। जिसप्रकार' पागल कुत्ते का विप वर्षाकाल मानेपर प्राणीको दुःख देता है उसीप्रकार पाप भी समय आनेपर जीवको नरकगतिके भयानक दुःख देता है ।।२।। जिसप्रकार अपथ्य सेवनसे ज्वर वृद्धिंगत होता हुआ जीवको लशित करता है उमीप्रकार मिध्याइष्टिका पाप अशुभाशयसे घृद्धिको प्राप्त होकर भविष्यमें नानाप्रकारके शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक दुःखौको देता है ॥शा धर्मके प्रभाव से समुद्र का अथाह पानी स्थल और स्थत जलरूप होकर सन्ताप दूर करता है। धर्म आपत्तिकालमें जीवकी रक्षा करता है और दरिंद्रको धन देता हैं इसलिये प्रत्येक प्राणीको तीर्थङ्करोंके द्वारा निरूपण किये हुए धर्मका अनुदान करना चाहिए ॥४॥ जिनेन्द्रभक्ति, स्तुति और सपर्या–पूजा यह प्रथमधर्म या पुण्य हैं। लोभकायको त्यागकर पात्रदान करना यह दूसरा धर्म है। एवं यह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह इन पाँच व्रतोंके अनुष्ठानसे तथा इच्छानिरोधरूप तपसे होता है। अतः विषेकी और मुन्नाभिलापी पुरुषोंको सदा धर्म में प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥५॥ निष्कर्ष:-नैतिक पुरुषको पापोंसे पराङ्मुख होकर नीतिपूर्ण पुरुषार्थ-बोगसे समस्त सुखोंको देनेवाले धर्म में प्रवृत्ति करते हुए भाग्यशाली बनना चाहिये; क्योंकि मानगरिक सभी मनोजतम बस्तुएं उसे प्राप्त होती हैं ।।५।। ॥ इति धर्शसमुश समात ॥ -. . . - - - - - - - - -- -- - धमा बंधुश्च मित्रं च धर्माऽयं गुरुरं गिनां । , तस्मादमें मति धत्स्व स्वर्मोक्षसुखदायिनि ||३|| धर्मात्सुस्वमधर्माच्च दुःखमित्यविमानतः। धर्मकपरतां धत्ते बुद्धोऽनर्थ जिदासया || -यादिपुराण पर्व १० १ धर्म प्रारिणदया सत्यं शान्तिः शोचं वितृप्तता । शानरैराग्यसंपत्तिरधर्मस्तद्विपर्ययः ।। -श्रादिपुग्ण पर्य. २ अादिपुरा के प्राधार से।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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