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________________ ककक के 'नोखिमार' के बाद हमारी धारणा के अनुसार यह 'नीतिवाक्यामृत' मन्थ हो ऐसा बनाया गया है, जो कि तक दोनों प्रन्थों की श्रेणी में रक्खा जा सकता है, क्योंकि इसमें युद्ध राजनैतिक teaन्सों का लजित निरूपण किया गया है । तिनको संस्कृत टांका में उल्जिखित वृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज व गर्ग आदि नीविकारोक उद्धरणों से प्रतीत होता है कि माचार्य श्री सोमदेवसूरेि के समय तत्कालीन समस्त नैतिक साहित्य उपअन्य था और उससे वे भार्या के समान परिचित थे तथापि न ये अनुभव व नयेत्वों का सम्मि किये जाने से इसमें प्रन्थकार की स्वतंत्र प्रतिभा व मौजिना प्रत्येक स्थान में प्रस्फुटित हुई प्रतीष होत्री है। ग्रन्थकर्ता का परिचय - नीतिवाक्यामृत के रचयिता भाषाय प्रवर श्रीमत्सोमदेव सूरि है, जो कि दि० सम्प्रदाय में प्रसिद्ध व प्रामाणिक चार संघों में से देवलंय के माचाय थे । नीतिवाक्यामृत की गद्यप्रशस्ति व यशस्व की प्रशस्ति से विदित होता है, कि सोमदेवसरि के गुरु का नाम नेमिदेव व दादागुरु का नाम यशोदर था एवं ये महेन्द्रवेष भट्टारक के अनुज थे। उक्त तीनों महात्माओं (यशोदेव नेविदेव व महेत्र दय पर्व सोमदेव की शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक सामग्री ( उनकी रचना, शिक्षा लेख प्रभृति) उपलब्ध न होने से हम कुछ निर्णय न कर सके। प्रस्तुत प्रथकार के गुरु प्रकाशक दार्शनिक थे, क्योंकि उन्होंने ६३ या ५५ बादियों को परास्त कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी प्रकार महेन्द्रदेव भट्टारक की 'वादीन्द्रकाज्ञानक्ष' उपाधि उनकी दिग्विजयिनी दार्शनिकविद्वत्ता प्रकट करती है । 1 प्रकार की दार्शनिक विद्वता- श्री सोमदेष सुदि अपने गुरु व अनुज के सदृश उद्भट दार्शनिक विद्वान् थे क्योंकि उन्होंने अपने यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के प्रारम्भ में कहा है कि 'मेरी बुद्धिरूपी गायने आजन्म वर्करूरी शुष्क घास खाना, उसी से सज्जनों के पुश्य से अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है'। इसी से यह बाव प्रमाणित होती कि प्रस्थकर्ता के जीवनका बहुभाग दर्शनशास्त्र के अभ्यास में व्यतीत हुआ था। इसीप्रकार 'स्याद्वादसिंह' 'बादी पंचानन' व 'तार्किक चक्रवर्ती' उपाधियां उनकी दार्शनिक प्रतिभाको प्रतीक है। सोमदेवसूरिका महाकवित्व, धर्माचार्यत्व एवं राजनीतिज्ञता श्री सोमदेवसूरि द्वारा विरचित 'यशस्तिलक चम्पू' महाकाव्य उनके महाकवित्व का उपलम्य प्रमाण है। इसमें महाकाव्य के समान प्रसाद माधुर्य व भोज ये तीनों गुण वर्तमान हैं, इसका मैंने मातृसंस्था ( स्था० म० काशी में अध्ययन व मनन क्रिया है, यह बड़ा अद्भुत, महाविष्ट गद्य पद्यात्मक संस्कृत काव्य प्रम्भ है, इसका गद्य भाग कादम्बरी से भी क्लिष्ट है। यह सुभाषित नीति रस्तो का आकर है। इसमें ज्ञान की त्रिशाल निधि संग्रह की गई है। माथफाव्य के समान इसके पढ़ लेने पर संस्कृत भाषाका कोई नया शब्द भवशिष्ट नहीं रहता। इसमें कुछ शब्द ऐसे हैं जो कि वर्तमान कोशप्रन्थों में नहीं पाये जाये । अवहार-पटुना व विषययुत्पत्ति कराने में यह प्रन्थ अपूर्व है। इसके सिवाय [ ६ ] ! I :
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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