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________________ १३४ * नीतिवाक्यामृत * अन्यमतोंके तपस्वियों द्वारा राजाका सम्मानः यदाह वैवस्वतो मनुः 'उञ्छषड्भागप्रदानेन वनस्था अपि तपस्विनो राजानं सम्भावयन्ति । २४॥ तस्यैव तद्भूयात् यस्तान् गोपायति' इति । २५॥ अर्थ:-वैवस्वतमनु* हिन्दू-धर्मका शास्त्रकार-ने कहा है कि वनवासी तपस्वी लोग भी जो कि स्वामीरहित एवं निर्जन पर्षस-प्रादि प्रदेशोंमें बर्तमान धान्यादिके कणोंसे अपना जीवन-निर्वाह करते हैं, राजा को अपने द्वारा संचित धान्य-कणोंका छठवाँ भाग देकर अपने द्वारा किये हुए तपके छठवें भागसे उसकी उन्नतिकी कामना करते हैं, एवं अपनी क्रियाके अनुदान के समय यह संकल्प करते हैं कि 'जो राजा तपस्वि. योंकी रक्षा करता है उसको हो हमारे द्वारा आचरण किया हुआ तप या उसका फूल प्राप्त होवे। भावार्थ:-वैष्णव सम्प्रदायके तपस्वी गण भी न्यायवान राजाकी उन्नतिके इच्छुक होते है। जिसके फलस्वरूप वे स्वसंचित धान्य कणोंका छठवां हिस्सा राजाको देकर संकल्प करते हैं कि जिसकी छत्रछाया में हम लोगोंका संरक्षण होता है उसे हमारी तपश्चर्याका फल प्राप्त हो ।।२४-२५॥ कौन बस्तु इष्ट है ? और कौन अनिष्ट है ? इसका निर्णय: __ तदमंगलमपि नामंगलं यत्रास्यात्मनो भक्तिः ॥२६॥ अर्थ:-जिस पदार्थमें जिसे प्रेम होता है, वह अनिष्ट-अमालीक (अशुभ) होनेपर भी इसके लिये इप-मंगलीक है। ___ भावार्थ:-उदाहरशमें लूला-काणा ब्यक्ति कार्गके प्रारम्भमें अमङ्गलीक समझा जाता है, परन्तु जो उससे प्रेम रखता है वह उसके लिये इष्ट ही है। भागुरि विद्वान्ने भी कहा है कि 'जो पदार्थ जिसके लिये प्रिय है वह अप्रिय होने पर भी यदि उस के कार्य के प्रारम्भमें प्राप्त होजावे, वो इष्ट समझा जाता है, क्योंकि उससे उसके कार्यकी सिद्धि हो जाती है ।शा निष्कर्ष-जो पवार्थ जिसके मनको प्रमुदित-हर्षित या संतुष्ट करते हैं वे उसके लिये मासीक हैं ॥२६॥ मनुष्यों के कर्तब्यका निर्देशः संन्यस्ताग्निपरिग्रहानुपासीत ॥२७॥ । 'पदाह वैवस्वतो मनुः' यह पाठ सं० टी० पुस्तकमें नहीं है, किन्तु मु• और भूः प्रतियोंसे समान किया गया है। नोट:-हिन्दू-धर्मकी मान्यताके अनुसार १४ मन होते हैं उनमें से चा वैरत्वव मनु " जिसका प्राचार्यभीमे उल्लेख किया है। सम्पावकः , तपाच भागरिः पद्यल्प वल्लभ वस्तु तन्वेदमे प्रयास्यति । कृत्यारम्मेष तस्य सुनिम्यमपि सिरिदम् ।।
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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