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________________ ज्यसनसमुकेश .UNRomala....... . .. .. . .... .. शिकार खेलनेमें प्रासक्त पुरुष, चोर-डाकू, मिह-व्याघ्रादि हिंसक जन्तु, शत्रु और कुटुम्बियों द्वारा मार डाला जाता है ।।।।। भारद्वाज' विद्वान उद्धरणका भी यही अभिप्राय है ।।१।। जुआरी पुरुष लोकमें पेश कौनसा पान (पाप है जिसमें प्रवृत्ति न करता हो; क्योंकि निश्चयसे माताके मर जाने पर भी जुपारी पुरुष जया खेलता रहता है। सारांश यह है कि जुबारी कर्तव्य-बोरसे विमुख होकर अनर्थ करता रहता है । अतः जनाका त्याग ही श्रेयस्कर है ।। १०-११ ।। शुक्रविद्वानने कहा है कि यदि जुनारी मनुष्य प्रेम-वश कभी अपनी प्रियाको प्रन्धि स्पर्श करता है सब ससफो स्त्री 'कहीं यह मेरो सुन्दर साड़ी अपहरण करके जाएके दावमें न लगा देवे इस बरसे उसे विलकुल नहीं चाहती।। १ ।। चुगलखोर अपने ऊपर सभी पुरुषों का विश्वास उत्पन्न करता है। अर्थात् वह अपने कपट-पूर्ण बर्ताव (चुगली करने) के कारण लोकमें किसीका भी विश्वास पात्र नहीं रहता ।। १२ ।। वसिष्ठ' विद्वानने भी राजाके समन घुगली करनेवाले को सभी का अविश्वास-पात्र कहा है ।।१।। दिनमै शयन शरीरमें छिपे हुए अनेक रोगरूपी सोको जगानेका कारण और समस्त कार्य-सिद्धिमें बाधक है। निष्कर्ष यह है कि स्वास्थ्य व कार्य-सिद्धि चाहनेवाले व्यक्तिको प्रीष्म-अतुको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें दिनमें नहीं सोमा पाहिये ॥ १३ ॥ धन्वन्तरि विद्वान्ने भी प्रीष्म ऋतुको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें दिनमें सोनेवालेके रोग-वृद्धि ष मृत्यु होने का निरूपण किया है ॥१॥ लोकमें पर-निंदाको छोषकर सबसे द्वीप उत्पन्न करानेवाली कोई औषधि नहीं है। अर्थात् जो मनुष्य पर-निंदा करता है, उससे सभी लोग देष करने लगते हैं । अथवा जो मनुष्य पर-निया करता है, उस निदा-निवृत्तिकी निंदा किये जानेवाले पुरुषकी प्रशंसाको छोड़कर अन्य कोई भमोष भौषधि नहीं है . याच मारााग-पगपाण्यसनोपेतः पुरुषो बधमानुपाए । रिम्पालारिदायापारपदिकसमस्य- ॥ २ व्या पक-सानुरागोऽपि बीवी पस्याः स्पृशति कहिंचित् । पूतविनरखते साधुबाहरणशकणा mn बार सिड:-विवापि कुलीनोऽपि राजाने पैच पैशनम् । यः करोति नो मूलस्तस्य कोऽपि न विरमसेव ॥१॥ ५ व्या व तरित-प्रीष्मकार परित्यज्य पोऽम्याने विषा स्वपेत् । तस्य रोगा: प्रबन्ते : स पाठि घमालपम् ॥
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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