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________________ १५६ नीतिवाक्यामृत ******* 14444444 अर्थ - शिवजोके श्वेत कठमें लगा हुआ भो वि विषही है। अर्थात् वह अपने नाशकारक स्वभावको नहीं छोड़ सकता अथवा कृष्णसे श्वेत नहीं होमकता । सारांश यह है कि जिसप्रकार विष शिवजीके अत्यन्त श्वेत कंठके आश्रयसे अपने प्राण घातक स्वभावको नहीं छोड़ सकता, उसीप्रकार वज्रमूर्ख मनुष्य भी राज मंत्री आदि ऊँचे पदोंपर अधिष्ठित होनेपर भी अपने मूर्खता पूर्ण स्वभावको नहीं छोड़ सकता ।। ६६ ॥ सुन्दरसेन' विद्वान् ने भी कहा है कि 'वस्तुका स्वभाव उपदेशसे बदला नहीं जासकता, क्योंकि जम भी गरम हो जानेपर पुनः अपने शीतल स्वभावको प्राप्त होजाता है ॥१॥ १२१ मंत्रियों को राज्यभार सौंपनेसे हानि स्ववधाय कृत्योत्थापनमिव मूर्खेषु राज्यभारारोपणम् ॥६७॥ अर्थ - जो राजा मूखं मंत्रियोंको राज्य भार समर्पण करता है, वह अपने नाशके लिए की गई मंत्रसिद्धिके समान अपना नाशकर डालता है। साशश यह है कि जिसप्रकार कोई मनुष्य अपने शत्रु-वध करके उद्देश्यसे मंत्र विशेष सिद्ध करता है, उसके ोिजने के लिए एक दिन प्रगट होता है, परन्तु यदि शत्रु जप, होम और दानादि करनेसे विशेष बलवान होता है, तब वह पिशाच शत्रु को न मारकर सल्टा मंत्र सिद्धि करनेवाले को मार डालता है, उसीप्रकार राजाभी मूर्ख मंत्रीको राज्यभार सौंपने से अपना नाश कर डालता है ॥६७॥ शुक विद्वान् ने कहा है कि 'जो राजा अपना राज्य भार मूर्ख मंत्रियोंको सौंप देता है, वह अपना नाश करनेके लिये मंत्रविशेष सिद्ध करता है ||१|| ' कर्त्तव्य - विमुख मनुष्यके शास्त्रज्ञानकी निष्फलता कार्यवेदिनः किंबहुना शास्त्र ेण ॥ ६८ ॥ अर्थ- जो मनुष्य कर्त्तव्य (हिन प्राप्ति व अहित परिवार) को नहीं जानता - चतुर नहीं है, उसकी बहुत शास्त्रोंका अभ्यास व्यर्थ है ॥६८॥ रैभ्य' विज्ञान ने भी कहा है कि 'जो व्यक्ति कर्त्तव्य परायण नहीं, उसका बढ़ा हुआ बहुत शास्त्रोंका अभ्यास भस्म में हवन करने के समान व्यर्थ हैं ||१|| १ तथा च सुन्दरसेन: - [ स्वभावो नोपदेशेन] शक्यते कर्तुं मन्यथा । सुतप्तान्यपि तोमानि पुनर्गच्छन्ति शीतलाम् ॥१ नरेड— उक्त श्लोकका प्रथम चरण संशोधित एवं परिवर्तित किया गया है; क्योंकि सं० टी० पुरुकर्मे म मुद्रित था । सम्पादक - २ तथाच शुक्रः-- मूर्ख मंत्रिपु यो भार [राजोस्थं संप्रयच्छति] | आत्मनाशाय कृत्यां स उत्थापयति भूमिपः ||१|| नोट- उक्त पद्मका दूसरा चरण संशोधित किया गया है। सम्पादक ३ तथा च यः कार्य यो निज बेति शास्त्राभ्यासेन तस्म किं । [ बहुनाऽपि वृद्धार्थेन ] यथा मस्महुतेन च ॥ १ मोट --- उक्त पथका तीसरा चरण संशोधित किया गया है। सम्पादक
SR No.090304
Book TitleNitivakyamrut
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, P000, & P045
File Size12 MB
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